पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/८३

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योगप्रदीप
 

तपस्याके द्वारा पहलेसे ही भूमि कुछ तैयार न हो। ध्यान- का फल प्राप्त करानेमें पुरातन योगके किसी मार्गसे भी कभी-कभी मदद ली जा सकती है। ज्ञानमार्गकी अद्वैत प्रक्रिया है जिसमें वारंवार यह कहा जाता है कि ‘मैं मन नहीं हूँ’, ‘मैं प्राण नहीं हूँ’, ‘मैं शरीर नहीं हूँ’ और इस प्रकार मन बुद्धि प्राण शरीरादिसे अपना तादात्म्य छुड़ाया जाता है, मन-बुद्धयादिकोंको अपने वास्तविक आत्मासे पृथक् देखा जाता है और कुछ काल अभ्यासके बाद यह अनुभव होता है कि मन बुद्धि प्राण और शरीरके सब कार्य और ये स्वयं भी बहिर्भूत, बाह्य कर्म हो रहे हैं, और अन्दर इन मन बुद्ध्यादिकोंसे सर्वथा अलग, स्वतः- सिद्ध आत्मसत्ताकी चेतना बढ़ती हुई अनुभूत होती है और फिर यही चेतना उद्घाटित होकर विश्वमें और फिर परात्परा सत्ताकी अनुभूतिमें अन्तःप्रविष्ट होती है। सांख्ययोगकी भी एक प्रक्रिया है और बड़ी जबर्दस्त प्रक्रिया है पुरुष और प्रकृतिके पार्थक्यकी। इसमें अपने साक्षी होनेकी भावना करनी होती है और यह मानना होता है कि मन, बुद्धि, प्राण, शरीरका सारा कर्म एक बाहरी खेल है और यह खेल मैं नहीं हूँ, न मेरा यह खेल है, बल्कि यह खेल प्रकृतिका है जो मुझपर लादा गया है। मैं साक्षी पुरुष हूँ, शान्त हूँ, उदासीन हूँ, इन सब चीजोंमेंसे किसीसे भी बँधा नहीं। इस प्रकार अपने अन्दर

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