पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/८४

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

एक पार्थक्य हो जाता है; साधक अपने अन्दर एक स्थिर शान्त पृथक् चैतन्यकी उत्तरोत्तर वृद्धि अनुभव करता है और यह चैतन्य मन, बुद्धि, प्राण और शरीररूप इस प्रकृतिके बाह्य नृत्यसे अपने आपको सर्वथा पृथक् बोध करता है। प्रायः जब ऐसा होता है तब परचैतन्यकी शान्ति और पराशक्तिका कर्म और योगका पूर्ण वेग अति शीघ्र नीचे ले आना सम्भव होता है। परन्तु प्रायः शक्ति ही ध्यान और प्रार्थनाके उत्तर में पहले नीचे आती है और तब, यदि इन प्रक्रियाओंकी आवश्यकता हो तो इनका अभ्यास कराती है और अन्य किसी भी ऐसे साधन या क्रियाका उपयोग करती है जो सहायक या अनिवार्यरूपसे आवश्यक हो।

एक बात और। इस अवतरण और इसके कार्यके क्रममें यह अत्यावश्यक बात है कि कोई सर्वथा अपने ही भरोसे न रहे, बल्कि गुरुके आदेश-निर्देशका भरोसा करे और जो कुछ उसकी समझ, विचार और निश्चयमें आवे उसे गुरुके आगे रखे। कारण, प्रायः ऐसा होता है कि अवतरणसे निम्न प्रकृतिकी शक्तियाँ उत्तेजित होती हैं और अवतरणके साथ मिलकर उससे अपना काम निकालना चाहती हैं। ऐसा भी प्रायः होता है कि कोई एक अथवा अनेक शक्तियाँ जो स्वरूपतः अभागवत हैं, श्रीभगवान् या

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