पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/९४

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कर्म अवस्थामें ठीक काम दे सकता है और किसी अवस्थामें कुछ भी काम नहीं दे सकता । कोई सामान्य सिद्धान्त सामान्यतः मान लिया जा सकता है यदि वह सत्यके अनुकूल हो, परन्तु उसके प्रयोगका प्रकार अन्तश्चैतन्यसे ही निश्चित करना होगा-प्रतिक्षण प्रतिपद इसको ही यह देखना होगा कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य । यदि अन्तःकरणकी प्रवृत्तियोंमें हृत्प्रवृत्ति ही प्रधान हो, यदि जीव सर्वथा माताके ही अभिमुख हुआ हो और हृत्प्रवृत्तिका ही अनुगमन करता हो तो यह बात अधिकाधिक सफलताके साथ बन सकती है। चित्तकी सामान्य वृत्ति समर्पणकी हो, इतना ही नहीं, बल्कि प्रत्येक कर्म ही भगवती माताको समर्पित करना चाहिये जिसमें यह वृत्ति सब समय जीती-जागती बनी रहे । कर्म करते समय किसी प्रकारके ध्यानमें मगन न होना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे चित्त कर्मसे हट जायगा; पर उन इष्टदेवका स्मरण तो सतत होना ही चाहिये जिनको कि वह कर्म समर्पित करना है। यह केवल प्रथम प्रक्रिया है । कारण, बाह्य मनके द्वारा कर्मके होते हुए भी जब तुम भागवत सत्ताके बोधमें अपने-आपको सतत स्थिर एकाग्र अनुभव करते रहने में समर्थ हो सकोगे, या जब तुम [८३]