पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/९७

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. योगप्रदीप यन्त्रवत् किया जानेवाला कर्म भी ठीक तरहसे नहीं हो सकता यदि असमर्थता, आलस्य और अकर्मण्यताकी वशता कोई स्वीकार कर ले । ऐसी अवस्थामें उपाय यही है कि तुम अपने आपको यन्त्रवत् किये जानेवाले कर्ममें ही आबद्ध मत रखो बल्कि अपात्रता, अकर्मण्यता और आलस्य- को अस्वीकार और परित्याग कर मातृशक्ति की ओर अपने आपको खोल दो। यदि दम्भ, उच्चपदाभिलाष और अहंमन्यता तुम्हारे मार्गमें बाधक हो तो इन्हें अन्दरसे निकालकर बाहर फेंक दो। इन चीजोसे, इनके हट जानेकी प्रतीक्षा ही केवल करते रहनेसे, छुटकारा नहीं मिलेगा। यदि तुम चाहते हो कि अमुक बात हो और उसके होनेकी केवल प्रतीक्षा ही करते रहोगे तो वह बात हो तो कैसे हो ? यदि अपात्रता और दुर्बलता इसमें बाधक है, तो भी जब कोई मातृशक्तिके सामने अपने आपको सचाईके साथ और उत्तरोतर अधिकाधिक उद्घाटित करेगा तभी उस कर्मके लिये आवश्यक शक्ति और पात्रता दी जायगी और यह शक्ति और पात्रता आधारमें बढ़ेगी। जो लोग सच्चे अन्तःकरणसे माताके लिये कर्म करते हैं वे उसी कर्महीके द्वारा इस योग्य होते हैं कि यथार्थ चैतन्यको प्राप्त हों, चाहे वे कभी [ ८६ ]