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रंगभूमि

सूरदास--"अब तो अंदर जा सकता हूँ।"

नायकराम-"अंदर तो जा सकते हो; पर बाहर नहीं निकल सकते। अब चलो आराम से सो रहो; जो होना था, हो गया। पछनाने से क्या होगा।"

सूरदास-"हाँ, सो रहूँगा, जल्दी क्या है।”

थोड़ी देर में रही-सही आग भी बुझ गई। कुशल बाद हुई कि और किसी के घर में आग न लगी। सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया। किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोपड़े के जल जाने का दुःख न था, बरतन आदि के जल जाने का भी दुःख न था दुःख था उसके पोटली का, जो उसकी उम्र-भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आमाओं का आधार थी जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी-सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उद्धार संचित था। यही उसके लोक और परलोक, उसकी दोन-दुनिया का आशा-दीपक थी। उसने सोचा-पोटली के साथ रुपये थोड़े ही जल गये होंगे। अगर रुपये पिघट भी गये होंगे, तो चाँदी कहाँ जायगा! क्या जानता था कि आज यह विपत्ति आनेवाली है, नहीं तो यहीं न सोता। पहले तो कोई झोपड़ी के पास आता ही न; और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहरे ही निकाल लेता। सच तो यों है कि मुझे यहाँ रुपये रखने ही न चाहिए थे। पर रखता कहाँ? मुहल्ले में ऐसा कौन है, जिसे रखने को देता। हाय! पूरे पांच सौ रुपये थे, कुछ पैसे ऊपर हो गये थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे-वैसे बटोर रहा था। खा लिया होता, तो कुछ तस्कीन होती। क्या सोचता था और क्या हुआ। गश जाकर पितरों को पिंडा देने का इरादा किया था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा? सोचता था, कहीं मिठुआ की सगाई ठहर जाय, तो कर डालूँ। बहू घर में आ जा तो एक रोटी खाने को मिले। अपने हाथों ठोंक-ठोंककर खाते एक जुग बीत गया! बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथ रुपये आते, एक-एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है!

उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकारक पांव नवल में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुरंत पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने पलटने लगा, जिसमें नीचे की आग भी जन्द राख हो जाय। आध घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते डरते राख में पैर रखा। राख गरम थी, पर असह्य न थी। उसने उसी जगह की सीध में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें, या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहमा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ, ईट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटाले। कोई चोज