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रंगभूमि

ठाकुरदीन—“पाप का डंड जरूर भोगना पड़ता है, चाहे जल्दी हो, चाहे देर।"

बजरंगी—"तुम्हारे चोरों को कुछ डंड न मिला।”

ठाकुरदीन—"मुझे कौन किसी देवता का इष्ट था। सूरदास को इष्ट है, उसकी एक कौड़ी भी किसी को हजम नहीं हो सकती, चाहे कितना ही चूरन खाये। मैं तो बद-बदकर कहता हूँ, अभी उसके घर की तलासी ली जाय, तो सारा माल बरामद हो जाय। दूसरे दिन मुँह-अँधेरे भैरो ने कोतवाली में इत्तिला की। दोपहर तक दारोगाजी तहकीकात करने आ पहुँचे। जगधर की खानातलाशी हुई, कुछ न निकला। भैरो ने समझा, इसने माल कहीं छिपा दिया। उस दिन से भैरो के सिर एक भूत-सा सवार हो गया। वह सवेरे ही दारोगाजी के घर पहुँच जाता, दिन-भर उनकी सेवा-टहल किया करता, चिलम भरता, पैर दबाता, घोड़े के लिए घास छील लाता, थाने के चौकीदारों की खुशामद करता, अपनी दूकान पर बैठा हुआ सारे दिन इसी चोरी की चर्चा किया करता-"क्या कहूँ, मुझे कभी ऐसी नींद न आती थी, उस दिन न जाने कैसे सो गया। मगर बँधवा न दूँ, तो नाम नहीं। दारोगाजी ताक में हैं। उसमें सब रुपये ही नहीं हैं, असर-फियाँ भी हैं। जहाँ बिकेंगी, बेचनेवाला तुरन्त पकड़ जायगा।"

शनैः-शनैः भैरो को मुहल्ले-भर पर संदेह होने लगा। और, जलते तो लोग उससे पहले ही थे, अब सारा मुहल्ला उसका दुश्मन हो गया। यहाँ तक कि अंत में वह अपने घरवालों ही पर अपना क्रोध उतारने लगा। सुभागी पर फिर मार पड़ने लगो-"तूने ही मुझे चौपट किया, तू इतनी बेखबर न सोती, तो चोर कैसे घर में घुस आता। मैं तो दिन-भर दौरी-दूकान करता हूँ, थककर सो गया। तू घर में पड़े-पड़े क्या किया करती है? अब जहाँ से बने, मेरे रुपये ला, नहीं तो जीता न छोड़ूँगा।" अब तक उसने अपनी माँ का हमेशा अदब किया था, पर अब उसकी भी ले-दोमचाता-"तू कहा करती है, मुझे रात को नींद ही नहीं आती, रात-भर जागती रहती हूँ। उस दिन तुझे कैसे नींद आ गई?” सारांश यह कि उसके दिल में किसी की इज्जत, किसी का विश्वास, किसी का स्नेह न रहा। धन के साथ सद्भाव भी उसके दिल से निकल गये। जगधर को देखकर तो उसकी आँखों में खून उतर आता था। उसे बार-बार छेड़ता कि यह गरम पड़े, तो खबर लूँ; पर जगधर उससे बचता रहता था। वह खुली चोटें करने की अपेक्षा छिपे वार करने में अधिक कुशल था।

एक दिन संध्या-समय जगधर ताहिरअली के पास आकर खड़ा हो गया। ताहिर--अली ने पूछा-"कैसे चले जी।?"

जगधर—"आपसे एक बात कहने आया हूँ। आबकारी के दारोगा अभी मुझसे मिले थे। पूछते थे-भैरो गोदाम पर दूकान रखता है कि नहीं? मैंने कहा-साहब, मुझे नहीं मालूम। तब चले गये, पर आजकल में वह इसकी तहकीकात करने जरूर आयेंगे। मैंने सोचा, कहीं आपकी भी सिकायत न कर दें, इसलिए दौड़ा आया।"

ताहिरअली ने दूसरे ही दिन भैरो को वहाँ से भगा दिया।