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रंगभूमि

सोफिया—"तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।"

मिस्टर क्लार्क इस व्यंग्य से मन में कटकर रह गये। उन्होंने समझा था, सोफी यह समाचार सुनकर फूली न समायेगी, और तब मुझे उससे यह कहने का अवसर मिलेगा कि यहाँ से जाने के पहले हमारा दांपत्य सूत्र में बंध जाना आवश्यक है। "तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो, इस निर्दय व्यंग्य ने उनकी सारी अभिलाषाओं पर पानी फेर दिया। इस वाक्य में वह निष्ठुरता, वह कटाक्ष, वह उदासीनता भरी हुई थी, जो शिष्टाचार की भी परवा नहीं करती। सोचने लगे-इसकी सम्मति की प्रतीक्षा किये बिना मैंने अपनी इच्छा प्रकट कर दी, कहीं यह तो इसे बुरा नहीं लगा! शायद समझती हो कि अपनी स्वार्थ-कामना से यह इतने प्रसन्न हो रहे हैं, पर उस बेकस अंधे की इन्हें जरा भी परवा नहीं कि उस पर क्या गुजरेगी। अगर यही करना था, तो यह राग ही क्यों छेड़ा था। बोले-“यह तो तुम्हारे फैसले पर निर्भर है।"

सोफी ने उदासीन भाव से उत्तर दिया—"इन विषयों में तुम मुझसे चतुर हो।"

क्लार्क—"उस अंधे की फिक्र है।"

सोफी ने निर्दयता से कहा—“उस अंधे के खुदा तुम्ही नहीं हो।"

क्लार्क—"मैं तुम्हारी सलाह पूछता हूँ और तुम मुझी पर छोड़ती जाती हो।"

सोफ़ी—"अगर मेरी सलाह से तुम्हारा अहित हो, तो?"

क्लार्क ने बड़ी वीरता से उत्तर दिया—"सोफी, मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ?"

सोफी—(हँसकर) "इसके लिए मैं तुम्हारी बहुत अनुगृहीत हूँ।"

इतने में मिसेज सेवक वहाँ आ गई और क्लार्क से हँस-हँसकर बातें करने लगीं। सोफी ने देखा, अब मिस्टर क्लार्क को बनाने का मौका नहीं रहा, तो अपने कमरे में चली आई। देखा, तो प्रभु सेवक वहाँ बैठे हैं। सोफी ने कहा-"इन हजरत को अब यहाँ से बोरिया-बँधना सँभालना पड़ेगा। किसी रियासत के एजेंट होंगे।"

प्रभु सेवक—(चौंककर) "कब?”

सोफी—"बहुत जल्द। राजा महेंद्रकुमार इन्हें ले बीते।"

प्रभु सेवक—"तब तो तुम यहाँ थोड़े हो दिनों की मेहमान हो।"

सोफ़ी—“मैं इनसे विवाह न करूँगी।"

प्रभु सेवक—"सच?"

सोफी—"हाँ, मैं कई दिन से यह फैपला कर चुकी हूँ, पर तुमसे कहने का मौका न मिला।"

प्रभु सेवक—"क्या डरती थीं कि कहीं मैं शोर न मचा दूँ?"

सोफी—“बात तो वास्तव में यही थी।"

प्रभु सेवक—"मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मुझ पर इतना अविश्वास क्यों करती हो, जहाँ तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारी बात किसी से नहीं कही।"