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रंगभूमि


ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति निवास करेंगे। आडंबर बढ़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगा, क्यारियाँ बनाऊँगा, कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूंगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधकर कहूँगा-सरकार, कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा-रानीजी, कुछ निगाह हो जाय।कभी-कभी सोफी भी पौदों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर-भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल मात पसीने से और सुंदर वस्त्र पाना से भीग जायगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलूँगा। कभी-कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगी, डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनन्द कहाँ, वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता है, उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डॉडा चलाऊँगा, सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी-कभी प्रभु सेवक भी आयंगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगे, नहाँ मंगल बाहें फैलाये हमारा इंतजार कर रहा है।"

सोफी और क्लार्क की आज संध्या-समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजें सज गई और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किये, तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा-"उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियम, तुमने देखा, उसका मुख कितना पीला पड़ गया था?"

क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुद्ध उत्तर दिया—"मूर्छा में बहुधा मुख पीला हो जाता है।"

सोफ़ी—"वही तो मैं भी कह रही हूँ कि उसकी दशा अच्छी नहीं, नहीं तो मूर्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराध की काफी सजा पा चुका है, उसे मुक्त कर देना उचित होगा।"

नीलकंठ—"मेम साहब, उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहीं, यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जायगा। बड़ा ही जिद्दी है, रियासत से बाहर जाने-पर राजी ही नहीं होता।"

क्लार्क—“ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है।"

सोफी ने उत्तेजित होकर कहा—"मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय-शून्य हो!"

क्लार्क—"मुझे तुम्हारा-जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं।"

सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की दृष्टि से देखा। यह गर्व, यह आत्मगौरव कहाँ से आया? तिरस्कार-भाव से बोली—“एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं।"