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रंगभूमि

विनय—"मेरे तो पैर थरथरा रहे।"

नायकराम—"तो इसी जीवट पर चले थे साँप के मुँह में उँगली डालने?"

जोखिम के समय पद-सम्मान का विचार नहीं रहता।

विनय—"तुम मुझे जरूर फँसाओगे।"

नायकराम—"मरद होकर फँसने से इतना डरते हो! फँस ही गये, तो कौन चूड़ियाँ मैली हो जायँगी! दुसमन की कैद से भागना लज्जा की बात नहीं।"

यह कहकर वह ईंटों पर खड़ा हो गया और विनय से बोला-"मेरे कंधे पर आ जाओ।"

विनय—"कहीं तुम गिर पड़े, तो?"

नायकराम-"तुम्हारे-जैसे पाँच सवार हो जायँ, तो लेकर दौड़। धरम की कमाई में बल होता है।"

यह कहकर उसने विनय का हाथ पकड़कर उसे अपने कंधे पर ऐसी आसानी से उठा लिया, मानों कोई बच्चा है।

विनय—"कोई आ रहा है।"

नायकराम-"आने दो। यह रस्सी कमर में बाँध लो और दिवाल पकड़कर चढ़ जाओ।"

अब विनय ने हिम्मत मजबूत की। यही निश्चयात्मक अवसर था। सिर्फ एक फलाँग की जरूरत थी। ऊपर पहुँच गये, तो बेड़ा पार है, न पहुँच सके, तो अपमान, लजा, दंड, सब कुछ है। ऊपर स्वर्ग है, नीचे नरक; ऊपर मोक्ष है, नीचे माया-जाल। दीवार पर चढ़ने में हाथों के सिवा और किसी चीज से मदद न मिल सकती थी। विनय दुर्बल होने पर भी मजबूत आदमी थे। फलाँग मारी और बेड़ा पार हो गया; दीवार पर जा पहुँचे और रस्सी पकड़कर नीचे उतर पड़े। दुर्भाग्य-वश पीछे दीवार से मिली हुई गहरी खाई थी, जिसमें बरसात का पानी भरा हुआ था। विनय ने ज्यों ही रस्सी छोड़ी, गरदन तक पानी में डूब गये और फिर बड़ी मुश्किल से बाहर निकले। तब रस्सो पकड़कर नायकराम को इशारा किया। वह मजा हुआ खिलाड़ी था। एक क्षण में नीचे आ पहुँचा। ऐसा जान पड़ता था कि वह दीवार पर बैठा था, केवल उतरने की देर थी।

विनय—"देखना, खाई है!"

नायकराम—“पहले ही देख चुका हूँ। तुमसे बताने की याद ही न रही।"

विनय—"तुम इस काम में निपुण हो। मैं कभी न निकल सकता। किधर चलोगे?"

नायकराम—"सबसे पहले तो देवो के मंदिर में चलूँगा, वहाँ से फिर मोटर पर बैठकर इसटेसन की ओर। ईश्वर ने चाहा, तो आज़ के तीसरे दिन घर पहुँच जायेंगे। देवी सहाय न होती, तो इतनी जल्दी और इतनी आसानी से यह काम न होता। उन्हींने यह संकट हरा। उन्हें अपना खून चढ़ाऊँगा।"

अब दोनों आजाद थे। विनय को ऐसा मालूम हो रहा था कि मेरे पाँव आप-ही-