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रंगभूमि


वह अंकुर, वह नन्ही-सी आकांक्षा, जो संध्या-समय उसके हृदय में उगो थी, इस ताप के झोंके से जल गई, अंकुर सूख गया।

सुभागी को नई चिंता सवार हुई—"मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँ? मैं कुछ उसकी लौंड़ी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धोऊँ, उसका खाना पकाऊँ और वह मटरगस करे। मुझे भी कोई बैठाकर न खिलायेगा। मैं खाऊँ ही क्यों? जब सब काम करेंगे, तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!"

प्रातःकाल जब वह झोपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकली, तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली-"क्यों री, आज रात तू यहीं रही थी क्या?"

सुभागी ने कहा—"हाँ, रही तो फिर!"

जमुनी—"अपना घर नहीं था?"

सुभागी—“अब लात खाने का बूता नहीं है।"

जमुनी—"तो तू दो-चार सिर कटाकर तब चैन लेगी। इस अंवे की भी मत मारो गई है कि जान-बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरो गला काट लेनेवाला आदमी है। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, चली जा घर।"

सुभागी—“उस घर में तो अब पाँव न रखूँगी, चाहे कोई मार ही डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए को बाँह पकड़ ली; और दूसरा यहाँ कौन है?"

जमुनी—"जिस घर में कोई मेहरिया नहीं, वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।"

सुभागो—"जानती हूँ, पर किसके घर जाऊँ? तुम्हारे घर आऊँ, रहने दोगो? जो कुछ करने को कहोगी, करूँगी, गोबर पायूँगी, भैंसों को घास-चारा दूँगी, पानी डालूँगो, तुम्हारा आटा पीसूँगी रखोगी?"

जमुनी—"न बाबा, यहाँ कौन बैठे-बिठाये रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भी, उस पर बदू भी बनूँ।"

सुभागी—“रोज गाली-मार खाया करूँ?"

जमुनी—"अपना मरद है, मारता ही है, तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता है?"

सुभागी—"क्यों बहुत बढ़-बढ़कर बात करतो हो जमुना! मिल गया है बैल, जिस कल चहती हो, बैठाती हो। रात-दिन डंडा लिये सिर पर सवार रहता, तो देखतो कि कैसे घर में रहतीं। अभी उस दिन दूध में पानी मिलाने के लिए मारने उठा था, तो चादर लेकर मैके भागी जाती थीं। दूसरों को उपदेस करना सहज है। जब अपने सिर पड़ती है, तो आँखें खुलती हैं।"

यह कहती हुई सुभागो कुएँ पर पानी भरने चली गई। वहाँ भी उसने टीकाकारों को ऐसा ही अक्खड़ जवाब दिया। पानी लाकर बर्तन धोये, चौका लगाया और सूरदास को सड़क पर पहुँचाने चली गई। अब तक बह लाठी से टटोलता हुआ अकेले हो