पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३५७
रंगभूमि


चाहिए।" मगर किसी कारण उसकी क्रियात्मक शक्ति शिथिल पड़ गई थी। वह मार्ग में सुभागी को देख लेता, तो कतराकर निकल जाता। सूरदास को देखता तो ओठ चबाकर रह जाता। वार करने की हिम्मत न होती। वह अब कभी मंदिर में भजन गाने न जाता, मेलों-तमाशों से भी उसे अरुचि हो गई, नशे का चस्का आप-ही-आप छूट गया। अपमान की तीव्र वेदना निरंतर होती रहती। उसने सोचा था, सुभागी मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जायगी, मेरे कलंक का दाग मिट जायगा। मगर वह अभी तक वहाँ उसकी छाती पर मूंग ही नहीं दल रही थी, बल्कि उसी पुरुष के साथ विलास कर रही थी, जो उसका प्रतिद्वंद्वी था। सबसे बढ़कर दुःख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था। उसे अपना अपमान सामने बैठा मुँह चिढ़ाता हुआ मालूम होता था। अब उसे गाली-गलौज से तस्कीन न हो सकती थी। वह इस फिक्र में था कि इन दोनों का काम तमाम कर दूँ। इस तरह मारूँ कि एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरें, पानी की बूंद भी न मिले। लेकिन अकेला आदमी क्या कर सकता है। चारों ओर निगाह दौड़ाता, पर कहीं से सहायता मिलने की आशा न दिखाई देती। मुहल्ले में ऐसे जीवट का कोई आदमी न था। सोचते-सोचते उसे खयाल आया कि अंधे ने चतारी के राजा साहब को बहुत बदनाम किया था। कारखानेवाले साहब को भी बदनाम करता फिरता था। इन्हीं लोगों से चलकर फरियाद करूँ। अंधे से दिल में तो दोनों खार खाते ही होंगे, छोटे के मुँह लगना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझकर चुप रह गये होंगे। मैं जो सामने खड़ा हो जाऊँगा, तो मेरी आड़ से वे जरूर निशाना मारेंगे। बड़े आदमी हैं, वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है। लेकिन जो कहीं मेरो पहुँच हो गई और उन्होंने मेरी सुन ली, तो फिर इन बचा की ऐसी खबर लेंगे कि सारा अंधापन निकल जायगा। (अंधेपन के सिवा यहाँ और रखा ही क्या था।)

कई दिनों तक वह इसी हैस-त्रैस में पड़ा रहा कि उन लोगों के पास कैसे पहुँचूँ। जाने की हिम्मत न पड़ती थी? कहीं उलटे मुझी को मार बैठे, निकलवा दें तो और भी भद्द हो। आखिर एक दिन दिल मजबूत करके वह राजा साहब के मकान पर गया, और साईस के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। साईस ने देखा, तो कर्कश कंठ से बोला—“कौन हो? यहाँ क्या उचक्कों की तरह झाँक रहे हो?"

भैरो ने बड़ी दीनता से कहा—"भैया, डाँटो मत, गरीब-दुखी आदमी हूँ।"

साईस—"गरीब दुखियारे हो, तो किसी सेठ-साहूकार के घर जाते, यहाँ क्या रखा है।"

भैरो—“गरीब हूँ, लेकिन भिखमंगा नहीं हूँ। इजत-आबरू सभी की होती है। तुम्हारी ही बिरादरी में कोई किसी की बहू-बेटी लेकर निकल जाय, तो क्या उसे पंचाइत यों ही छोड़ देगी? कुछ-न-कुछ दंड देगी ही। पंचाइत न देगी, तो अदालत-कचहरी से तो कुछ होगा।"

२३