पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३५८
रंगभूमि


साईस जात का चमार था, जहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ आये-दिन होती रहती हैं, और बिरादरी को उनकी बदौलत नशा-पानी का सामान हाथ आता रहता है। उसके घर में नित्य यही चर्चा रहती थी और इन बातों में उसे जितनी दिलचस्पी थी, उतनी और किसी बात से न हो सकती थी। बोला-"आओ, बैठो, चिलम पियो, कौन भाई हो?"

भैरो—“पासी हूँ, यहीं पाँड़ेपुर में रहता हूँ।"

वह साईस के पास जा बैठा और दोनों में सायँ-सायँ बातें होने लगी, मानों वहाँ कोई कान लगाये उनकी बातें सुन रहा हो। भैरों ने अपना संपूर्ण वृत्तांत सुनाया और कमर से एक रुपया निकालकर साईस के हाथ में रखता हुआ बोला-"भाई, कोई ऐसी जुगुत निकालो कि राजा साहब के कानों में यह बात पड़ जाय। फिर तो मैं अपना सब हाल आप ही कह लूँगा। तुम्हारी दया से बोलने—चालने में ऐसा बुद्ध नहीं हूँ। दरोगा से तो कभी डरा ही नहीं।"

साईस को रौप्य मुद्रा के दर्शन हुए, तो मगन हो गया। आज सबेरे-सबेरे अच्छी बोहनी हुई। बोला—"मैं राजा साहब से तुम्हारी इत्तला कराये देता हूँ। बुलाहट होगी, तो चले जाना। राजा साहब को घमंड तो छू ही नहीं गया। मगर देखना, बहुत देर न लगाना, नहीं तो मालिक चिढ़ जायँगे। बस, जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह डालना, बड़े आदमियों को बातचीत करने की फुरसत नहीं रहती। मेरी तरह थोड़े ही हैं कि दिन-भर बैठे गप्पें लड़ाया करें।"

यह कहकर वह चला गया। राजा साहब इस वक्त बाल बनवा रहे थे, जो उनका नित्य का नियम था। साईस ने पहुँचकर सलाम किया।

राजा—"क्या कहते हो? मेरे पास तलब के लिए मत आया करो।”

साईस—"नहीं हजूर, तलब के लिए नहीं आया था। वह जो सूरदास पाँडेपुर में रहता है।"

राजा—"अच्छा, वह दुष्ट अंधा!"

साईस—"हाँ हजूर, वह एक औरत को निकाल ले गया है।"

राजा—"अच्छा! उसे तो लोग कहते थे, बड़ा भला आदमी है। अब यह स्वाँग रचने लगा!

साईस—"हाँ हजूर, उसका आदमी फरियाद करने आया है। हुकुम हो, तो लाऊँ।" राजा साहब ने सिर हिलाकर अनुमति दी और एक क्षण में भैरो दबकता हुआ आकर खड़ा हो गया।

राजा—"तुम्हारी औरत है?"

भैरो—"हाँ हजूर, अभी कुछ दिन पहले तो मेरी ही थी!”

राजा—"पहले से कुछ आमद-रफ्त थी?"

भैरो—"होगी सरकार, मुझे मालूम नहीं।"

राजा—"लेकर कहाँ चला गया?"