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रंगभूमि


भैरो तो उधर गया, इधर वही स्वार्थो, लोभी, ईर्ष्यालु, कुटिल जगधर उसके गवाहों को फोड़ने का प्रयत्न करने लगा। उसे सूरदास से इतनी भक्ति न थी, जितनी भैरो से ईर्ष्या। भैरो अगर किसी सत्कर्म में भी उसकी सहायता माँगता, तो भी वह इतनी ही तत्परता से उसकी उपेक्षा करता।

उसने बजरंगो के पास जाकर कहा-"क्यों बजरंगी, तुम भी भैरो की गवाही कर रहे हो?"

बजरंगी-"हाँ, जाता तो हूँ।"

जगधर-"तुमने अपनी आँखों कुछ देखा है?"

बजरंगी-"कैसी बातें करते हो, रोज ही देखता हूँ, कोई बात छिपी थोड़े ही है।"

जगधर-"क्या देखते हो? यही न कि सुभागी सूरदास के झोपड़े में रहती है अगर कोई एक अनाथ औरत का पालन करे, तो बुराई है? अंधे आदमी के जीवट का बखान तो न करोगे कि जो काम किसी से न हो सका, वह उसने कर दिखाया, उल्टे उससे और बैर साधते हो। जानते हो, सूरदास उसे घर से निकाल देगा, तो उसकी क्या गत होगी? मुहल्ले की आबरू पुतलीघर के मजदूरों के हाथ बिकेगी। देख लेना। मेरा कहना मानो, गवाही-साखी के फेर में न पड़ो, भलाई के बदले बुराई हो जायगी। भैरो तो सुभागी से इसलिए जल रहा है कि उसने उसके चुराये हुए रुपये सूरदास को क्यों लौटा दिये। बस, सारी जलन इसी की है। हम बिना जाने-बूझे क्यों किसी की बुराई करें। हाँ, गवाही देने ही जाते हो, तो पहले खूब पता लगा लो कि दोनों कैसे रहते हैं......"

बजरंगी—(जमुनी की तरफ इशारा करके) "इसी से पूछो, यही अंतरजामी है, इसी ने मुझे मजबूर किया है।"

जमुनी—"हाँ। किया तो है, क्या अब भी दिल काँप रहा है?"

जगधर—“अदालत में जाकर गवाही देना क्या तुमने हँसी समझ ली है? गंगाजली उठानी पड़ती है, तुलसी-दल लेना पड़ता है, बेटे के सिर पर हाथ रखना पड़ता है। इसी से बाल-बच्चेवाले डरते हैं कि और कुछ!"

जमुनी—"सच कहो, ये सब कसमें भी खानी पड़ती हैं?"

जगधर—"बिना कसम खाये तो गवाही होती ही नहीं।"

जमुनी—"तो भैया, बाज आई ऐसी गवाही से, कान पकड़ती हूँ। चूल्हे में जाय सूरा और भाड़ में जाय भैरो, कोई बुरे दिन काम न आयेगा। तुम रहने दो।"

बजरंगी—"सूरदास को लड़कपन से देख रहे हैं, ऐसी आदत तो उसमें न थी।"

जगधर—"न थी, न है और न होगी। उसकी बड़ाई नहीं करता, पर उसे लाख रुपये भी दो, तो बुराई में हाथ न डालेगा। कोई दूसरा होता, तो गया हुआ धन पाकर चुपके से रख लेता, किसी को कानोकान खबर भी न होती। नहीं तो जाकर सब रुपये दे आया। उसकी सफाई तो इतने ही से हो जाती है।"