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रंगभूमि


ठाकुरदीन देवभीरु आत्मा था। दुविधा में पड़ गया। जगधर ने आसन पहचाना, इसी ढंग की दो-चार बातें और कीं। आखिर ठाकुरदीन गवाही देने से इनकार करने लगा। जगधर की ईर्ष्या किसी साधु के उपदेश का काम कर गई। संध्या होते-होते भैरो को मालूम हो गया कि मुहल्ले में कोई गवाह न मिलेगा। दाँत पीसकर रह गया। चिराग जल रहे थे। बाजार की और दूकानें बंद हो रहो थीं। ताड़ी की दूकान खोलने का समय आ रहा था। गाहक जमा होते जाते थे। बुढ़िया चिखौने के लिए मटर के दालमोट और चटपटे पकौड़े बना रही थी, और भैरो द्वार पर बैठा हुआ जगधर को, मुहल्लेवालों को और सारे संसार को चौपालियाँ सुना रहा था-"सब-के-सब नामरदे हैं, आँख के अंधे, जभी यह दुरदसा हो रही है। कहते हैं, सूखा क्यों पड़ता है, प्लेग क्यों आता है, हैजा क्यों फैलता है, जहाँ ऐसे-ऐसे बेईमान, पापो, दुस्ट बसेंगे, वहाँ और होगा ही क्या। भगवान इस देस को गारत क्यों नहीं कर देते, यही अचरज है। खैर, जिंदगानी है, तो हम और जगधर इसो जगह रहते हैं, देखी जायगी।"

क्रोध के आवेश में अपनी नेकियाँ बहुत याद आती हैं। भैरो उन उपकारों का वर्णन करने लगा, जो उसने जगवर के साथ किये थे-"इसकी घरवाली मर रही थी। किसी ने बता दिया, ताजी ताड़ी पिये, तो बच जाय। मुँह-अवेरे पेड़ पर चढ़ता था और ताजी ताड़ी उतारकर उसे पिलाता था। कोई पाँच रुपये भी देता, तो उतने सबेरे पेड़ पर न चढ़ता। मटकों ताड़ी पिला दी होगी। तमाखू पीना होता है, तो यहीं आता है। रुपये-पैसे का काम लगता है, तो मैं ही काम आता हूँ, ओर मेरे साथ यह घाट! जमाना ही ऐसा है।"

जगधर का घर मिला हुआ था। यह सब सुन रहा था ओर मुंह न खोलता था। वह सामने से वार करने में नहीं, पीछे से वार करने में कुशल था।

इतने में मिल का एक मिस्त्री, नीम-आस्तीन पहने, कोयले की भभूत लगाये और कोयले ही का-सा रंग, हाथ में हथौड़ा लिये, चमरौधा जूना डाटे, आकर बोला-"चलते हो दूकान पर कि इसी झंझट में पड़े रहोगे? देर हो रही है, अभी साहब के बँग ठे पर जाना है।"

भैरो-"अजी जाओ, तुम्हें दूकान की पड़ी हुई है। यहाँ ऐमा जी जल रहा है कि गाँव में आग लगा दूँ।”

मिस्त्री-"क्या है क्या? किस बात पर बिगड़ रहे हो, मैं भी सुनूँ।"

भैरो ने संक्षिप्त रूप से सारी कथा सुना दी और गाँववालों की कायरता और आम-जनता का दुखड़ा रोने लगा।

मिस्त्री-“गाँववालों को मारो गोली। तुम्हें कितने गवाह चाहिए? जितने गवाह कहो, दे दूँ, एक-दो, दस-बीस। भले आदमी, पहले ही क्यों न कहा? आज ही ठीक- ठाक किये देता हूँ। बस, सबों को भर-भर पेट पिला देना।"