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रंगभूमि


सामने आते देखा, तो हक्का-बक्का रह गया। विस्मित होकर बोला—"अरे, क्या जरी-बाना दे आया क्या?"

बुढ़िया बोली—"बेटा, इसे जरूर किसी देवता का इट है, नहों तो वहाँ से कैसे भाग आता!"

सूरदास ने बढ़कर कहा—'भैरो, मैं ईश्वर को बीच में डालकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम कि तुम्हारी दूकान किसने जलाई। तुम मुझे चाहे जितना नीच समझो, पर मेरी जानकारी में यह बात कभी न होने पाती। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि यह किसी मेरे हितू का काम है।"

भैरो—"पहले यह बताओ कि तुम छूट कैसे आये? मुझे तो यही बड़ा अचरज है।"

सूरदास—"भगवान की इच्छा। सहर के कुछ धर्मात्मा आदमियों ने आपस में चंदा करके मेरा जरीबाना भी दे दिया और कोई तोन सौ रुपये जो बच रहे हैं; मुझे दे गये हैं। मैं तुमसे यह कहने आया हूँ कि तुम ये रुपये लेकर अपनी दूकान बनवा लो, जिसमें तुम्हारा हरज न हो। मैं सब रुपये ले आया हूँ।"

भैरो भौचक्का होकर उसकी ओर ताकने लगा, जैसे कोई आदमी आकाश से मोतियों की वर्षा होते देखे। उसे शंका हो रही थी कि इन्हें बटोरूँ या नहीं, इनमें कोई रहस्य तो नहीं है, इनमें कोई जहरीला कोड़ा तो नहीं छिपा है, कहीं इनको बटोरने से मुझ पर कोई आफत तो न आ जायगी। उसके मन में प्रश्न उठा, यह अंधा सचमुच मुझे रुपये देने के लिए लाया है, या मुझे ताना दे रहा है। जरा इसका मन टटोलना चाहिए। बोला—"तुम अपने रुपये रखो, यहाँ कोई रुपयों के भूखे नहीं हैं। प्यासों मरते भी हों, तो दुसमन के हाथ से पानी न पियें।"

सूरदास—“भैरो, हमारी-तुम्हारी दुसमनी कैसी? मैं तो किसी को अपना दुसमन नहीं देखता। चार दिन की जिंदगानी के लिए क्या किसी से दुसमनी को जाय! तुमने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की। तुम्हारी जगह मैं होता और समझता कि तुम मेरी घरवाली को बहकाये लिये जाते हो, तो मैं भी यही करता, जो तुमने किया। अग्नी आबरू किसको प्यारी नहीं होती! जिसे अपनी आबरू प्यारी न हो, उसकी गिनती आदमियों में नहीं, पशुओं में है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, तुम्हारे हो लिए मैंने ये रुपये लिये, नहीं तो मेरे लिए तो पेड़ की छाँह बहुत थो। मैं जानता हूँ, अभी तुम्हें मेरे ऊपर संदेह हो रहा है, लेकिन कभी-न-कभी तुम्हारा मन मेरी ओर से साफ हो जायगा। ये रुपये लो ओर भगवान का नाम लेकर दूकान बनाने में हाथ लगा दो। कम पड़ेंगे, तो जिस भगवान ने इतनी मदद की है, वही भगवान और मदद भी करेंगे।"

भैरो को इन वाक्यों में सहृदयता ओर सजनता की झलक दिखाई दी। सत्य विश्वासोत्पादक होता है। नरम होकर बोला—"आओ, बैठो, चिलम पियो। कुछ बातें हों, तो समझ में आये। तुम्हारे मन का भेद ही नहीं खुलता। दुसमन के साथ तो कोई भलाई नहीं करता, तुम मेरे साथ क्यों इतनी मेहरबानी करते हो?"