पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३९७
रंगभूमि


सोचने लगा—देखूँ, इसका कवि-समाज कितना आदर करता है। संपादकों की प्रशंसा का तो कोई मूल्य नहीं। उनमें बहुत कम ऐसे हैं, जो कविता के मर्मज्ञ हों। किसी नये, अपरिचित कवि की सुंदर-से-सुंदर कविता स्वीकार न करेंगे, पुराने कवियों की सड़ी-गली, खोगीर की भरती, सब कुछ शिरोधार्य कर लेंगे। कवि मर्मज्ञ होते हुए भी कृपण होते हैं। छोटे-मोटे तुकबंदी करनेवालों की तारीफ भले ही कर दें; लेकिन जिसे अपना प्रतिद्वंद्वी समझते हैं, उसके नाम से कानों पर हाथ रख लेते हैं। कुँवर साहब तो जरूर फड़क जायँगे। काश विनय यहाँ होते, तो मेरी कलम चूम लेते। कल कुँवर साहब से कहूँगा कि मेरा संग्रह प्रकाशित करा दीजिए। नवीन युग के कवियों में तो किसी को मुझसे टक्कर लेने का दावा हो नहीं सकता, और पुराने ढंग के कवियों से मेरा कोई मुकाबला नहीं। मेरे और उनके क्षेत्र अलग हैं। उनके यहाँ भाषा-लालित्य है, पिंगल की कोई भूल नहीं, खोजने पर भी कोई दोष न मिलेगा, लेकिन उपज का नाम नहीं, मौलिकता का निशान नहीं, वही चबाये हुए कौर चबाते हैं, विचारोत्कर्ष का पता नहीं होता। दस-बीस पद्य पढ़ जाओ, तो कहीं एक बात मिलती है, यहाँ तक कि उपमाएँ भी वही पुरानी-धुरानी, जो प्राचीन कवियों ने बाँध रखी हैं। मेरी भाषा इतनी मँजी हुई न हो, लेकिन भरती के लिए मैंने एक पंक्ति भी नहीं लिखी। फायदा ही क्या?

प्रातःकाल वह मुँह-हाथ धो, कविता जेब में रख, बिना जलपान किये घर से चला, तो जॉन सेवक ने पूछा—"क्या जलपान न करोगे? इतने सबेरे कहाँ जाते हो?"

प्रभु सेवक ने रुखाई से उत्तर दिया—"जरा कुँवर साहब की तरफ जाता हूँ।"

जॉन सेवक—"तो उनसे कल के प्रस्ताव के संबंध में बात-चीत करना। अगर वह सहमत हो जायँ, तो फिर किसी को विरोध करने का साहस न होगा।"

मिसेज सेवक—"वही चर्च के विषय में न?”

जॉन सेवक—"अजी नहीं, तुम्हें अपने चर्च ही की पड़ी हुई है। मैंने निश्चय किया है कि पाँड़ेपुर की बस्ती खाली करा ली जाय और वहीं कुलियों के मकान बनवाये जायँ। उससे अच्छी वहाँ कोई दूसरी जगह नहीं नजर आती।"

प्रभु सेवक—"रात को आपने उस बस्ती को लेने की चर्चा तो न की थी!"

जॉन सेवक—"नहीं, आओ जरा यह नक्शा देखो। बस्ती के बाहर किसी तरक काफी जमीन नहीं है। एक तरफ सरकारी पागलखाना है, दूसरी तरफ रायसाहब का बाग, तीसरी तरफ हमारी मिल। बस्ती के सिवा और जगह ही कहाँ हैं? और, बस्ती है ही कौन-सी बड़ी! मुश्किल से १५-२० या अधिक-से-अधिक ३० घर होंगे। उनका मुआवजा देकर जमीन लेने की क्यों न कोशिश की जाय?"

प्रभु सेवक—"अगर बस्ती को उजाड़कर मजदूरों के लिए मकान बनवाने हैं, तो रहने ही दीजिए; किसी-न-किसी तरह गुजर तो हो ही रहा है।"

जॉन सेवक—"अगर ऐसी बस्तियों की रक्षा का विचार किया गया होता, तो आज यहाँ एक बँगला भी न नजर आता। ये बँगले ऊसर में नहीं बने हैं।"