पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५२४
रंगभूमि


सोफिया को इंदु का आना कभी इतना नागवार न मालूम हुआ था। विनय को भी बुरा मालूम हुआ बोले-"तुम क्यों आई?"

इंदु--"इसलिए कि तुम्हारे भाई साहब ने आज पत्र द्वारा मुझे मना कर दिया था।"

विनय-"आज की स्थिति बहुत नाजुक है, हम लोगों के धैर्य और साहस की आज कठिनतम परीक्षा होगी।"

इंदु-"तुम्हारे भाई साहब ने तो उस पत्र में यही बात लिखी थी।"

विनय-'क्लार्क को देखो, कितनी निर्दयता से लोगों को हंटर मार रहा है। किंतु कोई हटने का नाम भी नहीं लेता। जनता का संयम और धैर्य अब अंतिम बिंदु तक पहुँच गया है। कोई नहीं कह सकता कि कब क्या हो जाय।"

साधारण जनता इतनी स्थिर-चित्त और दृढ़-व्रत हो सकती है, इसका आज विनय को अनुभव हुआ। प्रत्येक व्यक्ति प्राण हथेली पर लिये हुए मालूम होता था। इतने में नायकराम किसी ओर से आ गये और विनय को देखकर विस्मय से पूछा-'आज तुम इधर कैसे भूल पड़े भैया?"

इस प्रश्न में कितना व्यंग्य, कितना तिरस्कार, कितना उपहास था! विनय ऐंठकर रह गये। बात टाल कर बोले-"क्लार्क बड़ा निर्दयी है!" नायकराम ने अंगोछा उठाकर विनय को अपनी पीठ दिखाई। गरदन से कमर तक एक नीली, रक्तमय रेखा खिंची हुई थी, मानों किसी नोकदार कील से खुरच लिया गया हो। विनय ने पूछा-"यह घाव कैसे लगा?"

नायकराम-"अभी यह हंटर खाये चला आता हूँ। आज जीता बचा, तो समझूँगा। क्रोध तो ऐसा आया कि टाँग पकड़कर नीचे घसीट लूँ, लेकिन डरा कि कहीं गोली न चल जाय, तो नाहक सब आदमी भुन जायँ। तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया। औरत का माया-जाल बड़ा कठिन है!"

सोफिया ने इस कथन का अंतिम वाक्य सुन लिया। बोली-“ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम इस जाल में नहीं फंँसे।"

सोफिया को चुटकी ने नायकराम को गुदगुदा दिया। सारा क्रोध शांत हो गया। बोले-"भैया, मिस साहब को जवाब दो। मुझे मालूम तो है, लेकिन कहते नहीं बनता। हाँ, कैसे?"

विनय-"क्यों, तुम्हीं ने तो निश्चय किया था कि अब स्त्रियों के नगीच न जाऊँगा, ये बड़ी बेवफा होती हैं। उसी दिन की बात है, जब मैं सोफ़ी की लताड़ सुनकर उदयपुर जा रहा था।"

नायकराम-(लज्जित होकर)-"वाह भैया, तुमने तो मेरे ही सिर झोंक दिया?"

विनय-"और क्या कहूँ। सच कहने में क्या संकोच! खुश हों, तो मुसीबत; नाराज हों, तो मुसीबत।"