पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/११

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"इसमें अनुचित क्या। हमारे यहाँ इतनी जगह ही नहीं कि बाहर की जनता समा सके।"

"हाँ जगह तो नहीं है, परन्तु कुछ प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा।"

"प्रबन्ध कैसा?"

"कोई बड़ा स्थान——।"

"कीर्त्तन तो भगवान के सामने होगा। मैं भगवान को यहाँ से उठा कर कहीं अन्यत्र नहीं ले जा सकता। भगवान यहाँ प्रतिष्ठित हो चुके हैं अतः यहीं रहेंगे।"

"समझ लीजिए! भीड़ इकट्ठी अवश्य होगी।"

"मैं दरवाजे पर बोर्ड लगवा दूँगा कि यह प्राइवेट कीर्त्तन हैं अनिमंत्रित लोग आने का कष्ट न उठावें। बल्कि स्थानीय समाचारपत्र में भी निकलवा दूँगा।"

"हाँ यदि ऐसा कर दिया जाय तो सम्भव है भीड़ न हो।"

"ऐसा तो करना ही पड़ेगा—अन्यथा मैं इतने लोगों को बिठाऊँगा कहाँ। मेरा मन्दिर कोई सार्वजनिक मन्दिर नहीं है—का मन्दिर सार्वजनिक है—वहाँ लोग जा सकते हैं।"

"परन्तु वहाँ तो इस साल कदाचित कुछ न होगा।"

"क्यों?"

"उनके यहाँ कोई मृत्यु हो गई है चार-पाँच महीने हुए।"

एक व्यक्ति बोल उठा—"ठाकुर जी के उत्सव से और मृत्यु से क्या सम्बन्ध! क्या घरवालों के साथ ठाकुर जी भी शोक मनायेंगे।"

"मनाना पड़ेगा। जब ठाकुर जी उनके घर में रहते हैं, उनका अन्न खाते हैं तब उन्हें उनके दुःख-सुख में भी भाग लेना पड़ेगा।"

"यह ठीक रहा। जब घर वाले खुशी मनावें तब ठाकुर जी भी खुशी मनावें और जब घर वाले मातम करें तब ठाकुर जी भी मातम करें।"

"क्यों भई जब घर वाले स्वर्गीय का स्मरण करके रोते होंगे। तब ठाकुर जी भी रोने लगते होंगे?"