"मन्त्री जी को इतना विलम्ब क्यों हुआ? उन्हें तो सबसे पहले आना था।
एक महाशय बोले।
अपनेराम ने कहा---"सबसे पहले आ जाना साम्यवाद के विरुद्ध है।"
"क्यों? विरुद्ध क्यों है?"
"मन्त्री जी में कौन से सुर्खाव के पर लगे हैं जो वह पहले ही आकर डट जायँ? साम्यवाद के अर्थ तो यह हैं कि सब एक साथ आवें और सब एक साथ जायंँ।"
"परन्तु यह भी तो नहीं हो रहा है। सब साथ कहाँ आ रहे हैं?"
"साम्यवादी सिद्धान्त को मानते हैं---व्यवहार में यदि गड़बड़ी होती है तो उसके जिम्मेदार साम्यवादी नहीं हैं।"
एक साम्यवादी महाशय बोल उठे---
"नहीं ऐसी बात तो नहीं है। हम लोग जो कहते हैं उसे व्यवहार में लाने का प्रयत्न भी करते हैं।"
इसी समय मन्त्री जी आ गये।
"लीजिए मन्त्री जी आ गये। अब कार्य आरम्भ हो जायगा।"
मन्त्री के एक हाथ में कुछ कागज-पत्र थे जिन्हें उन्होंने मेज पर रख दिया और एक बार सभा स्थल का सिंहावलोकन किया। इसके पश्चात् मन्त्री जी कुछ सहकारियों से खुसुर-फुसुर करने लगे। कुछ वार्तालाप करके वह अपनेराम के पास आये और बोले---"सभापति के लिये आपका नाम उपस्थित करते हैं।"
"क्या?
"आप सभापति बन जायँ!"
"यह आशीर्वाद दे रहे हैं या प्रार्थना कर रहे हैं?"
"नहीं, सभापति बनने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।"
"परन्तु आपको उचित है कि किसी कम्यूनिस्ट को सभापति बनाएं।"
"नहीं, यह कार्य आप ही को करना होगा।"