पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१२३

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सुन कर बोल उठा--'यह भाषण दोबारा होना चाहिये' तो अपने राम उसे दोबारा बोलने की आज्ञा दे देंगे।"

"परन्तु भाषण याद कैसे रहेगा? कविता तो लिखी रहती है।"

"खैर मुझे इससे बहस नहीं है। मैं दोबारा आज्ञा दे दूंगा।"

खैर साहब पहले एक महाशय ने आकर बोलना प्रारम्भ किया----"सज्जनो यद्यपि रूस में होली नहीं होती,परन्तु तब भी हम लोग अपना भारतीय त्योहार मान कर इसे मनाते हैं।"

"न मनाना चाहिये।" एक कामरेड ने आवाज लगाई।

"क्यों?" एक ने प्रश्न किया।

"क्योंकि इस समय देश में सुख शान्ति नहीं है।"

एक महोदय खड़े होकर बोले----"मेरी राय में तो होली मनाना चाहिये। सुख-शान्ति ऐसे ही अवसरों पर मिलती है।"

हमने कहा---"अच्छा तो आपको सुख-शान्ति की तलाश है!"

"मुझे ही क्या, संसार उसकी खोज में हैं। परन्तु सुख शान्ति कुछ थोड़े से धनीमानी सज्जनों को ही मिलती है, सर्व-साधारण को नहीं मिलती।"

"धनीमानी सज्जनों को सुख-शान्ति! यह आपसे किसने कहा?"

"लोगों का खयाल तो ऐसा ही है"

"बिल्कुल गलत खयाल है। धनीमानी सज्जनों को जितनी चिन्ता सवार रहती है उतनी निर्धन को नहीं रहती।"

"क्या?" वक्ता ने पूछा।

"धनी को दुनिया भर की चिन्ता रहती है। किसी का देना है, किसी से पावना है, किसी से मिलना है, किसी से बात करना है---ऐसे बीसों झंझट लगे रहते हैं। निर्धन को ऐसी कोई चिन्ता नहीं रहती।" अपने राम ने कहा।

वक्ता ने पुनः कहना आरम्भ किया---"आप सभापति जी की बात पर ध्यान न देकर मेरी बात पर ध्यान दें। सभापति जी इन बातों को नहीं समझ सकते। हाँ तो ऐसे कुसमय में होली मनाना अनुचित है।