पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१३

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"इनमें से अधिकांश तो केवल प्रसाद लेने के लिए खड़े हैं, प्रसाद लेकर चले जायेंगे।"

"परन्तु इतने आदमियों के लिए तो हमने प्रसाद का प्रबन्ध किया नहीं। और साल तो इतने आदमी नहीं आते थे।"

"इस वर्ष मण्डली आने के कारण आपका काफी विज्ञापन हो गया है इसलिए इतनी भीड़ जमा है। पहिले इतने आदमी नहीं जानते थे कि आप के यहाँ भी अष्टमी इतने धूम धाम से मनाई जाती है।"

"सबको प्रसाद नहीं मिलेगा तो बदनामी हो जायगी।"

"हाँ यह बात तो है।"

"तब क्या होना चाहिए।"

"जल्दी से प्रसाद बनवा लीजिए।"

"इतनी जल्दी प्रसाद कहाँ से बन सकता है। प्रसाद का सब सामान फल इत्यादि कच्चा दूध और दही यह इस समय कहाँ मिलेगा?"

"कच्चा दूध तो नहीं मिलेगा। सन्ध्या को मिल सकता था।"

"फल भी नहीं मिलेंगे।"

"हाँ है तो कठिन समस्या।

"तब क्या हो। बादल तो छाये हैं परन्तु वर्षा होने के लक्षण नहीं हैं। यदि वर्षा होने लगे तो यह भीड़ हुर्र हो जाय!"

"खैर देखा जायगा, कीर्तन तो प्रारम्भ करवाइये।"

रायसाहब सोचने लगे कि मण्डली बुलवा कर खामखाह एक मुसीबत मोल ले ली।

कीर्तन आरम्भ हुआ; परन्तु रायसाहब को इस समय उसके प्रति कोई अनुराग नहीं था। उनका ध्यान अपनी बदनामी हो जाने के भय में लगा हुआ था। उन्हें ठाकुरजी पर भी रोष हो रहा था कि हमारी आबरू बचाने के लिए वर्षा भी नहीं करते, बैठे मुँह ताक रहे हैं। ठाकुरजी के सामने खड़े होकर मन ही मन बोले—"ऐसे में मूसलाधार बरसा दो—बैठे देख क्या रहे हो? भक्त की आबरू बचाने के लिए कुछ भी न करोगे?"