पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१३०

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"इस तरह बेकार फिरने से तो कहीं काम में लग जाय तो अच्छा है। रोटी खा गया?"

"न कहीं! उसका कोई समय है, कभी दो बजे आयगा तब खायगा, कभी तीन चार भी बज जाते हैं। सबेरे गुड़ खा के निकल जाता है।"

"आज मैं उससे बात करूंँगा।"

बातें करते करते श्यामसिंह सो गया। तीन बजे के लगभग वह जाग पड़ा। जागते ही उसने देखा कि रामू बैठा भोजन कर रहा है।

"बड़ी देर कर देता है, कहां घूमा करता है?" श्यामसिंह ने पूछा।

"कहीं नहीं!"

"कहीं नहीं? घर में नहीं रहता तो कहीं तो जाता ही होगा?"

पिता की बात का उत्तर न देकर रामू बोला--"चाचा, हम खोंचा लगायँगे, हमें एक थाल और दो चार कटोरे और बाँट-तराजू ला दो।"

"काहे का खोञ्चा लगायगा?"

"यही फसल की चीजें! पट्टी-रेवड़ी, मूंगफली, धनिये के आलू। कभी कुछ कभी कुछ!"

श्यामसिंह 'हुँ' कहकर विचार में पड़ गया। थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् बोला--"काम तो बुरा नहीं है, पर तुम से होगा?"

"होगा क्यों नहीं।"

"खूब सोच-समझ लेओ। ऐसा न हो कि मुझे तुम्हारी खबर लेना पड़े।"

"नहीं चाचा! हमारा एक साथी यही काम करता है। हमने कई दिन उसके साथ घूम के देखा है।"

"अच्छी बात है। थाल तो चाहे घर में ही निकल आवे। एक थाल पड़ा तो था। रामू की मांँ---थाल है कोई?"

"हाँ एक है तो, साफ करना पड़ेगा।"