पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१३९

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भक्षक रक्षक


( १ )

दोपहर का समय था। पं चन्द्रकान्त सर्राफ अपनी दुकान पर बैठे थे। थोड़ी ही दूर पर उनका एक सहकारी भी विराजमान था। एक बगल में उनका एक नौकर भी बैठा था। चन्द्रकान्त की दूकान पर अनेक प्रकार की सोने-चांदी की तैयार वस्तुए बिकती थीं।

पं० चन्द्रकान्त जम्हाई लेकर बोले---"आज बड़ा सन्नाटा है।"

सहकारी बोला---"अब धूप कुछ तेज होने लगी है इसलिए दोपहर में आदमी नहीं निकलते।"

"हाँ यह बात तो है।" चन्द्रकान्त ने कहा। दोनों मौन हो गये। समय काटने के लिए चन्द्रकान्त ने एक बही उठा ली और उसके पन्ने उलटने लगे। कुछ समय इस प्रकार बीतने के पश्चात सामने से स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा आता दिखाई पड़ा। दुकानों की ओर ताकते हुये वे दोनों चन्द्रकान्त की दुकान के सामने आये। दुकान के सन्मुख आकर दोनों ठिठक गये। शो केस में लगे हुये सामान को कुछ देर ध्यान-पूर्वक देखने के पश्चात दोनों ने धीमे स्वर में कुछ बात की। चन्द्रकान्त ने बही पर से दृष्टि उठाकर उनकी ओर देखा। स्त्री की वयस २०, २२ वर्ष के लगभग थी। गोरी चिट्टी नाक-नक्शे से दुरुस्त तथा हृष्ट-पुष्ट।

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