पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१४४

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कर का माला छोड़ कर मनका माला जपते हो बच्चा! बगुला हो---देखने में बड़े शान्त और गम्भीर परन्तु ध्यान मछली की ही ओर रहता है।"

इस समय अल्लहरक्खू आ गया। उसने आते ही फराशी सलाम किया। अल्लहरक्खू की वयस पचास के लगभग! गाल में पान की गिलौरी दबी हुई है।

"कहो मियाँ अच्छे हो?"

"हुजूर के इकबाल से सब बखैरियत! क्या हुक्म है।"

"क्या बताना पड़ेगा?"

"बस आपका इशारा ही काफी है।"

"हमारी पसन्द तो जानते ही हो।"

"नई चीज लीजिए! इन्शाअल्लाह देख कर फड़क जाइयेगा।"

यह कहकर अल्लहरक्खू चला गया।

"अच्छा मै जरा नहा डालूँ।"

"हाँ माँग चोटो से लैस हो जाऊँ।"

"बको मत!" कह कर रजनीगन्धा गुसलखाने में चला गया।

जिस समय रजनीगन्धा गुसलखाने से निकल कर बाहर आया और सिंगार मेज के आइने के सामने बैठकर बाल संवार रहा था उसी समय अल्लहरक्खू आगया। उसके पीछे एक स्त्री थी। अल्लहरक्खू उससे बोला-"चली आओ।" स्त्री सकुचाती हुई आकर कुर्सी पर बैठ गई। परन्तु ज्यों ही उसकी दृष्टि चन्द्रकान्त पर पड़ी वह चौंक उठी। चंद्रकान्त ने भी उसे ध्यानपूर्वक देखा सहसा वह भी चौंके। यह स्त्री वही थी जो एक मास पूर्व पचीस रुपये की साड़ी पिन ले गई थी!

स्त्री तुरन्त उठ खड़ी हुई और अल्लह से बोली---"चलो!"

"क्यों! क्यों! बैठो शरीफ आदमी हैं।"

चन्द्रकान्त बोल उठा---"बैठो! कोई डरने की बात नहीं है। अल्लहरक्खू तुम जाओ।"