बालिका ने कहा—वाह, जो पैसा दे, उसी के राखी बाँधी जाती है।
माता—अरी कँगली। पैसे भर नहीं—भाई के ही राखी बाँधी जाती है।
बालिका उदास हो गई।
माता घर का काम-काज करने लगी। घर का काम शेष करके उसने पुत्री से कहा—आ तुझे न्हिला (नहला) दूँ।
बालिका मुख गम्भीर करके बोली—मैं नहीं नहाऊँगी।
माता—क्यों, नहावेगी क्यों नहीं?
बालिका—मुझे क्या किसी के राखी बाँधनी है?
माता—अरी राखी नहीं बाँधनी है, तो क्या नहावेगी भी नहीं। आज त्योहार का दिन है। चल उठ नहा।
बालिका—राखी नहीं बाँधूगी तो तिवहार काहे का?
माता—(कुछ क्रुद्ध होकर) अरी कुछ सिड़न हो गई है। राखी-राखी रट लगा रक्खी है। बड़ी राखी बाँधने वाली है। ऐसी ही होती तो आज यह दिन देखना पड़ता। पैदा होते ही बाप को खा बैठी। ढाई बरस की होते-होते भाई का घर छुड़ा दिया। तेरे ही कर्मों से सब नास (नाश) हो गया।
बालिका बड़ी अप्रतिभ हुई और आँखों में आँसू भरे हुए चुपचाप नहाने को उठ खड़ी हुई।
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एक घन्टा पश्चात् हम उसी बालिका को उसके घर के द्वार पर खड़ी देखते हैं। इस समय भी उसके सुन्दर मुख पर उदासी विद्यमान है। अब भी उसके बड़े बड़े नेत्रो में पानी छलछला रहा है।
परन्तु बालिका इस समय द्वार पर क्यों? जान पड़ता है, वह किसी कार्यवश खड़ी है, क्योंकि उसके द्वार के सामने से जब कोई निकलता है, तब वह बड़ी उत्सुकता से उसकी ओर ताकने लगती है। मानो वह मुख से कुछ कहे बिना केवल इच्छा शक्ति ही से, उस पुरुष का ध्यान