पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१७

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"मेरे ख्याल से तो मि॰ सिनहा इस कार्य को कर लेंगे।"

"मेरा भी ख्याल ऐसा ही है।"

"मैंने मि॰ सिनहा को बुलाया तो है।"

"अभी तो वह आये नहीं हैं।"

"मैंने कह दिया है कि जिस समय आवें मेरे पास भेज देना।"

यह कहकर सम्पादक ने घन्टी बजाई।

तुरन्त एक चपरासी अन्दर आया सम्पादक ने उससे कहा—"मि॰ सिनहा आये हैं? देखो तो!"

चपरासी चला गया। कुछ क्षण पश्चात् आकर बोला—"अभी तो नहीं आये।"

"आते होंगे!" कहकर सम्पादक महोदय पुनः सहकारियों से बात करने लगे। कुछ देर पश्चात् एक व्यक्ति सम्पादक के कमरे में प्रविष्ट हुआ। यह व्यक्ति यथेष्ट हृष्ट-पुष्ट था। वयस २५, २६ के लगभग गौर-वर्ण, क्लीनशेव्ड, देखने में सुन्दर जवान था। उसे देखते ही सम्पादक महोदय ने कहा—"आइये मि॰ सिनहा! मैं आपकी प्रतीक्षा ही कर रहा था।" मि॰ सिनहा मुस्कराते हुए एक कुर्सी पर बैठ गये और बोले—

"कहिये, क्या आज्ञा है?"

"भाई बात यह है कि 'कला भवन' का उद्घाटन हो रहा है। उसमें महाराज की स्पीच होगी। वह स्पीच सबसे पहले हमारे पत्र में प्रकाशित होनी चाहिए।"

मि॰ सिनहा ने कहा—"सो तो होना ही चाहिए।"

"परन्तु इस कार्य को करेगा कौन? आप कर सकेंगे?"

मि॰ सिनहा विचार में पड़ गये। सम्पादक महोदय बोले—"खर्च की चिन्ता मत कीजिएगा।"

मि॰ सिनहा बोले—'प्रयत्न करूंगा। सफलता का वादा नहीं करता।"

"सफलता का वादा तो कोई नहीं कर सकता। परन्तु अच्छे से अच्छा प्रयत्न करने का वादा किया जा सकता है।"