पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१७६

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स्त्री ने दीपक जलाया और पास ही एक दीवार पर उसे रख दिया, फिर इनकी ओर मुख करके वह नीचे चटाई पर बैठ गई, परन्तु ज्योंही उसने घनश्याम पर अपनी दृष्टि डाली—एक हृदयभेदी आह उसके मुख से निकली—और वह ज्ञानशून्य होकर गिर पड़ी।

स्त्री की ओर कुछ अंधेरा था, इस कारण उन लोगों को उसका मुख स्पष्ट न दिखाई पड़ता था। घनश्याम उसे उठाने को उठे; परन्तु ज्यों ही उन्होंने उसका सिर उठाया और रोशनी उसके मुख पर पड़ी, त्यों ही घनश्याम के मुख से निकला—मेरी माता—और उठकर वे भूमि पर बैठ गए।

अमरनाथ विस्मित हो काष्ठवत बैठे रहे। अन्त को कुछ क्षण उपरान्त बोले—उफ, ईश्वर की महिमा बड़ी विचित्र है! जिनके लिए न जाने तुमने कहाँ-कहाँ की ठोकरें खाई, वे अन्त को इस प्रकार मिले।

घनश्याम अपने को सँभाल कर बोले—थोड़ा पानी मँगाओ।

अमरनाथ—किससे मंगाऊँ। यहां तो कोई और दिखाई ही नहीं पड़ता, परन्तु हाँ वह लड़की तुम्हारी—कहते अमरनाथ रुक गए। फिर उन्होंने पुकारा—बिटिया, थोड़ा पानी दे जाओ।—परन्तु कोई उत्तर न मिला।

अमरनाथ ने फिर पुकारा—बेटी, तुम्हारी माँ अचेत हो गई हैं। थोड़ा पानी दे जाओ।

इस 'अचेत' शब्द में न जाने क्या बात थी कि तुरन्त ही घर के दूसरी ओर बरतन खड़कने का शब्द हुआ। तत्पश्चात एक पूर्णवयस्का लड़की लोटा लिए आई। लड़की मुंह कुछ ढँके हुए थी। अमरनाथ ने पानी लेकर घनश्याम की माता की आँखें तथा मुख धो दिया। थोड़ी देर में उसे होश आया। उसने आँखें खोलते ही फिर घनश्याम को देखा। तब वह शीघ्रता से उठ कर बैठ गई और बोलीं—ऐं, मैं क्या स्वप्न देख रही हूँ? घनश्याम क्या तू मेरा खोया हुआ घनश्याम है? या कोई और?