पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१७९

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"अजी यह भी कोई सवारी है। इस वक्त घोड़ा-गाड़ी होती तो काम देती। घोड़ा मरते-मरते भी ठिकाने तक तो पहुँचा ही देता।" तीसरा बोला।

कार के स्वामी कार से उतरे। उनके चेहरे पर बड़ी घबराहट थी। उन्होंने स्त्रियों से कहा---"उतरो अब पैदल चलना पड़ेगा।"

स्त्रियाँ अत्यन्त भयभीत थीं। दोनों उतरीं। साहब के कूले पर थर्मस फ्लास्क ( पानी की बोतल ) लटक रही थी। स्त्रियों से उन्होंने कहा---"और सब छोड़ो, खाली, टिफिन केरियर ले लो।"

कार के पीछे दो चमड़े के बक्स बँधे थे। कुछ सामान अन्दर भी रक्खा था। उनको सतृष्ण नेत्रों से देखते हुए दीर्घ निश्वास छोड़ कर वह व्यक्ति बोला--"छोड़ो इन सब को।

"अजी बाबू जी इस लाश को तो दफना देते। बेचारी ने न जाने आप की कितनी सेवा की होगी।"

यह सुनकर कुछ आदमी हंसने लगे। बाबू बिगड़ कर बोले--"हम तो मुसीबत में हैं और तुम लोगों को मज़ाक सूझा है।"

"तो हम लोग कौन सुख में हैं सरकार! लेकिन मुसीबत को भी हँसी-खुशी सहना चाहिये।"

"आप को ज्यादा रञ्ज न हो, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं--- बुरा न मानियेगा।"

बाबू साहब मुस्करा दिए, बोले "ठीक कहते हो भाई! हमें अपनी तो कुछ परवा नहीं इन औरतों और बच्चे की चिन्ता है।"

"खैर चिन्ता करने से कोई फायदा नहीं। अब तो भुगतना ही पड़ेगा। आइये चलें।

बाबू साहब ने एक दृष्टि कार तथा असबाब पर डाली---ठन्डी साँस खींची और चल दिए। दोनों स्त्रियाँ भी रोती हुई चल दीं। चलते समय उन्होंने कार पर रक्खे हुए चार कम्बल उठा कर अपने कन्धों पर डाल लिए।

बाबू साहब चलते हुये बोले---"इस दुनिया में कुछ है नहीं। कल