पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१८५

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भजन से इतने प्रसन्न हुए कि वे भी इन्हीं के साथ हो गये। इस प्रकार अब पाँच आदमियों से बढ़ कर यह एक पूरा काफिला हो गया।

चौथे दिन ये लोग भारत की सीमा पर पहुंँचे। यहांँ सहायता का प्रबन्ध था। इतने दिनों में ही स्त्रियों की बुरी दशा हो गई। उनके पैरों में घाव हो गये। बाबू साहब भी आधे रह गये। लड़के की दशा अच्छी थी, क्योंकि उसे रामभजन तथा अन्य लोग बीच-बीच में अपने कन्धों पर लेकर चलते थे।

रामभजन बाबू साहब के साथ कलकत्ते तक आया। यहाँ आकर वह बोला "अब मैं अपने गाँव जाऊंगा बाबू!"

"अब कब और कहाँ मिलोगे?" बाबू साहब ने पूछा।

"मेरा पता लिख लीजिए। आप अपने ठिकाने से मुझे चिट्ठी डालियेगा फिर जैसा होगा देखा जयगा।"

बाबू साहब ने रामभजन का पता लिख लिया।

चलते समय बाबू साहब आँसू भर कर बोले---"रामभजन तुम्हारी बदौलत हम लोग जीवित आगये, अन्यथा वहीं खत्म हो जाते।"

"सब को भगवान ने पार लगाया बाबू, मेरी क्या शक्ति थी।"

बाबू साहब रामभजन को दो सौ रुपये देने लगे। परन्तु रामभजन बोला, मैंने मजदूरी नहीं की है बाबू! रुपये लेने से तो यह मजदूरी और नौकरी हो जायगी। मैंने तो जो किया मनुष्यता के नाते किया।

मुसीबत में दूसरों की सहायता और सेवा करना यही तो मनुष्यता है। है। मैं अपनी मनुष्यता को बेच नहीं सकता बाबू! आप अपने रुपये अपने पास रखिये।"

बाबू साहब ने बहुत कहा, बहुत समझाया, पर रामभजन ने एक न मानी। वह बोला, "फिर कभी मुझे आवश्यकता पड़ेगी तो आप से मांँग लूँगा, इस समय तो एक पैसा न लूँगा।" यह कह कर रामभजन बाबू साहब से विदा हो गया। बाबू साहब सोचने लगे, "ऐसे ही आदमी को मनुष्य कहना चाहिए।"