पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१८९

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हमें कोई संकोच थोड़े ही है। स्वयंसेवक हो! तुम्हारा स्थान भी कोई न्यून नहीं है।"

"स्वयंसेवक क्या हैं, पेट पालते हैं किसी तरह! स्वयंसेवक होना बड़ा कठिन है पण्डित जी!"

"कठिन क्या हैं! उसमें काम ही क्या है। मेले-ठेले में पानी पिलाओ और भूले-भटकों को राह बताओ! इसमें कौन कठिनता है।"

"इसमें तो कोई कठिनता नहीं। पर कठिन काम पड़ जाने पर उसे भी करना ही पड़ता है। स्वयंसेवक होकर उससे मुँह नहीं मोड़ सकते।"

"अरे भइया जान जोखिम आने पर सब मुँह मोड़ जाते हैं, वैसे कहने को कोई चाहे जो कहे।"

"नहीं पण्डित जी स्वयंसेवक कभी मुँह नहीं मोड़ेगा।"

"अभी लड़के हो! मेरा सब देखा-सुना है। बड़े-बड़े स्वयंसेवकों को मैं देख चुका हूँ।"

"कभी छोटों की बात भी मान लिया कीजिये।"

"क्या मान लूँ! हमसे कोई अधिक बुद्धिमान अथवा अनुभवी हो तो मान लूँ। तुम्हारी बात कैसे मान लूँ? अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन की पैदायश।"

अनोखेलाल निश्वास छोड़ कर मन ही मन बोला––"भगवान इनका यह अभिमान चूर्ण करे।"

(३)

जिस दिन अनोखेलाल जाने वाला था उसके एक दिन पूर्व दोपहर को पण्डित लालताप्रसाद के मकान से मिले हुए मकान की एक लड़की हाथ में गिलास लिये हुए पण्डित जी के घर आयी और पण्डिताइन से गिलास में आग लेकर अपने घर की ओर चली।

घर की चौपाल तक पहुँचते-पहुँचते गिलास इतना गर्म हो गया कि लड़की ने उसे हाथ से छोड़ दिया। चौपाल में एक ओर खर-पतवार