पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१९०

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जमा था---गिलास की आग जो गिरी तो उसमें से एक चिनगारी छिटक कर उस खर-पतवार में पहुँच गई। लड़की घर के भीतर चली गई और एक तवा लाकर उस पर, दो-चार कोयले जो पड़े थे, उठा ले गई। ज्येष्ठ का महीना था---लू जोर की चल रही थी। सहसा पतवार के ढेर में से एक ज्वाला उठी। वह चौपाल के छप्पर तक पहुँची---छप्पर भी जलने लगा। इधर गांव में हल्ला हो गया---"आग लगी! आग लगी!" गांँव के अनेक आदमी दौड़े। कुए से पानी खींचने लगे, कुछ लोग निकटवर्ती गढ़इया से घड़े भर-भर के लाने लगे। जब तक आदमी दौड़ कर आवे तब तक पण्डित लालताप्रसाद का छप्पर भी जलने लगा। लोग पहले घर के आदमी तथा सामान निकालने में लगे थे। पण्डित लालताप्रसाद जल्दी-जल्दी अपना असबाब निकाल रहे थे। पत्नी और बच्चों को पहले ही निकाल कर बाहर खड़ा कर दिया था।

सहसा उनकी पत्नी बोली---"बक्स तो निकाल लाओ!"

पण्डित जी को याद आया कि बक्स नहीं निकाला गया। उसमें पण्डित जी की समस्त पूँजी गहने और नोटों के रूप में बन्द थी। पण्डित जी दौड़कर अन्दर घुस गये। पण्डित जी के अंदर जाते ही चौपाल का छप्पर जलता हुआ द्वार पर गिरा, अतः द्वार बन्द हो गया।

यह देखकर पण्डित जी की पत्नी ने हल्ला मचाया। कुछ लोग, जिनमें अनोखेलाल भी था, दौड़कर पण्डित जी के द्वार पर आये।

पत्नी रोकर बोली----"पण्डित जी अन्दर रह गये-उन्हें निकालो।"

लोगों ने बाँसों से जलते हुए छप्पर को द्वार पर से हटाया। छप्पर हटने पर देखा गया कि द्वार भी जल रहा है। यह देखकर एक बोला---"अब तो पण्डित का निकलना कठिन है। भीतर कोई जा ही नहीं सकता।"

अनोखेलाल दौड़कर घर के दूसरी ओर गया। उसने देखा कि दीवारों पर रक्खी हुई परछतियाँ भी जल रही हैं।

अनोखेलाल बोला---"चारों और आग है।"

गाँव वाले बोले---"अब पण्डित नहीं निकल सकते।"