पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१९१

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इधर पण्डित जी की पत्नी तथा बच्चे चीत्कार कर रहे थे! अनोखे लाल बोला---"मैं हूँ स्वयंसेवक और एक स्वयं-सेवक सेवा करने में अपने प्राणों का मोह नहीं करता। यह कह कर वह दौड़ कर अपने घर गया और एक कम्बल ले आया। कम्बल ओढ़ कर और अपना मुँह भली भांति ढक कर वह थोड़ा पीछे हटा और फिर दौड़कर द्वार के निकट पहुंचा और वहां से छलांँग मार कर भीतर पहुंच गया। सारा घर धुएँ से भरा था। पण्डित घर के आंँगन में बैठे---"हे भगवान रक्षा करो! हे नारायण दया करो!" कह रहे थे----बक्स एक ओर पड़ा था। धुआँ और आग की गर्मी इतनी थी कि वहाँ ठहरना कठिन था। अनोखेलाल ने झटपट पण्डित जी को उठाकर पीठ पर लाद लिया और पुनः कम्बल ओढ़ कर द्वार की ओर लपका परन्तु अब द्वार अग्नि की लपटों के कारण सर्वथा अवरुद्ध हो चुका था। दो बार अनोखेलाल ने प्रयत्न किया परन्तु धुएँ और ज्वाला के कारण पीछे हट गया। बाहर बड़ा हल्ला मचने लगा। लोग कह रहे थे--"अब दोनों जल मरेंगे।"

अनोखेलाल ने तीसरा प्रयत्न जान खेल कर किया। उसने एक जोर की छलांँग भरी और द्वार को पार करके चबूतरे पर मुंह के बल आ गिरा। लोगों ने उसे दौड़ कर उठाया! उसके घुटने और कोहनी फूट गई थीं। दोनों टांगे नीचे से खुली थीं---उन पर फफोले पड़ गये थे।

पण्डित जी बिलकुल बेदाग थे। वह अनोखेलाल के पैरों पर गिर पड़े और बोले---"भाई तुम सच्चे स्वयं-सेवक हो। सेवा की भावना हुए बिना कोई इस प्रकार अपने प्राणों का मोह छोड़ कर दूसरे के प्राण नहीं बचा सकता।"

गाँव वालों ने नारा लगाया---"अनोखेलाल की जय! स्वयं-सेवक की जय!"