नौ बजे तक मन्दिर में रहते, तत्पश्चात् घर अाकर भोजन करते थे और फिर ग्यारह-साढ़े ग्यारह तक अपनी बैठक में बैठकर आगत मित्रों तथा परिचितों से वार्तालाप करते थे अथवा अकेले होने पर कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ा करते थे !
पौनेदस का समय था। पण्डित जी भोजन करके अपनी बैठक में पाकर बैठे ही थे कि उसी समय उनके दो मित्र आ गये ।
पण्डित जी ने मुस्कराकर उनका स्वागत किया
"कहो भई रामजीदास, सब कुशल ?"
"हाँ सब आपकी दया है।"
"और तुम बम्बई से कब लौटे रामसेवक ?"
"मैं कल आया हूँ।"
"क्या हाल-चाल है।"
"हाल-चाल सब ठीक है।"
"रामलीला हो रही है ?"
"हाँ ! मैं तो अभी किसी दिन गया नहीं, लड़के बच्चे जाते हैं।"
"हम लोग क्या जाय ! वही सब पुरानी बातें, कहीं कोई नवीनता नहीं।" रामजीदास ने कहा।
"नवीनता हो कहाँ से । प्राचीन ढंग से करने में भी वाधा है।"
"वाधा कैसी?"
"यही, हिन्दू-मुस्लिम दंगे की।"
"दंगा-वंगा कुछ नहीं होगा। पुलिस का काफी प्रबन्ध है।" पण्डित जी मुस्करा दिये बोले-"इतनी नवीनता थोड़ी है ?"
"नवीनता इसमें क्या है ?"
"प्रति वर्ष पुलिस का प्रबन्ध अधिक होता जाता है यही नवी- नता है।"
दोनों व्यक्ति हँस पड़े । रामसेवक ने कहा—"इसमें कौन सी नवी-नता है?'
"इसमें बहुत बड़ी नवीनता है। सरकार को लोगों के धार्मिक कार्य