पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/२०४

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"तुम्हारे ऊपर क्या झंझट है।"

"इसी सोच में हूँ कि उनकी कुछ सहायता करूं । मिठाई तो मैं ला दूंगा, परन्तु अन्य चीजें मेरे बस को नहीं है । विधवा का दुःख देखा नहीं जाता । मैं गरीब आदमी उनकी क्या सहायता करूं—समझ में नहीं आता।"

"तुमसे नहीं देखा जाता तो मुझे ले चलो, मैं देखूंगा।"

"आपने अभी भोजन-वोजन नहीं किया है।"

"इसकी चिन्ता मत करो।"

"तो चलो। अच्छे मिल गये।"

दोनों चल कर विधवा ब्राह्मणी के घर पहुचे । एक गन्दे अंधेरे तथा तङ्ग मकान को एक कोठरी में विधवा का निवास था। विधवा केशरीर पर केवल एक फटी धोती और बच्चों के शरीर पर मैला तथा फटा कुर्ता था--लड़के का अधोभाग नंगा था-उसको आयु सात वर्ष की थी और कन्या केवल एक चिथड़ा लपेटे हुए थी। दोनों बच्चे मौन थे परन्तु उनके गालों पर आँसुओं की लकीरें स्पष्ट बता रही थीं कि उन्होंने अभी कुछ क्षण पूर्व ही रोना बन्द कर दिया है।

माताप्रसाद ने देख कर नेत्र बंद कर लिये और एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोले—'हे राम तुम कहाँ हो ?"

इसके पश्चात् अपने साथी से बोले-"चलो!"

"इनके लिए क्या सोचा।"

"चलो ! तुम इस झंझट में न पड़ो।" दोनों चले । जहाँ भेंट हुई थी वहाँ पहुँचा कर पण्डित जी बोले-

"अच्छा तो चलता हूँ।" परिचित महोदय ने खिन्न होकर कहा-"अच्छा ! नमस्कार ।"

"नमस्कार' ! कह कर पण्डित जी चल दिये । परिचित महोदय ने मन ही मन कहा “वाह ! अच्छे मिले-देखकर चले आये कुछ दिया भी नहीं । बड़े धार्मिक की दुम बनते हैं। हमसे कहते हैं, तुम इस झंझट में