"अच्छा, लौटा दूँगी।"
सुनन्दा भाषण लेकर अपनी कोठी में आई। उसने आते ही मि० सिनहा को फोन किया।
मि० सिनहा के आने तक सुनन्दा ने भाषण स्वयं पढ़ डाला।
पन्द्रह मिनट पश्चात् नौकर ने मि० सिनहा के आने की सूचना दी।"
सुनन्दा मि० सिनहा के पास मुँह लटकाये हुए पहुंची और बोली, "भाषण तो नहीं मिल सका।"
मि० सिनहा का मुख मलिन हो गया, वह बोले--"यह तो बड़ा गड़बड़ हुआ।"
सहसा सुनन्दा खिलखिला कर हँस पड़ी और उसने भाषण की प्रति दिखाकर कहा--"यह है भाषण।"
मि० सिनहा का मुख खिल उठा। उन्होंने उत्सुकता पूर्वक हाथ बढ़ा कर भाषण लेना चाहा। सुनन्दा हाथ पीछे हटाकर बोली-"पहले इनाम तो दिलवाओ।"
"इनाम ! भाषण तो तुम्हारे हाथ में है और इनाम मुझसे माँग रही हो। मेरे हाथ में देकर इनाम माँगो।"
"दोगे?"
"अवश्य !"
सुनन्दा ने भाषण दे दिया। मि० सिनहा ने उसे खोलकर देखा। सुनन्दा ने पूछा--"है वही धोखा तो नहीं है?"
"नहीं। धोखा नहीं है।"
“अब इनाम मिलना चाहिए।"
"हाँ ! हाँ ! यह लो इनाम !"
यह कहकर मि० सिनहा ने सुनन्दा को घसीट कर अपने अङ्क में ले लिया।
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महाराज की स्पीच सबसे पहले "लाउड स्पीकर" में प्रकाशित हुई। जिस दिन उद्घाटन समारोह होने वाला था उसी दिन प्रातःकाल