"मुझे जवान बनाकर स्वयं बूढ़े ही बने रहना चाहते हो?"
"मुझे इसी में प्रसन्नता है।"
"परन्तु मुझे तो नहीं है। तुम्हें बूढ़ा नहीं देखना चाहती।"
"यदि संसार का कल्याण चाहती हो तो मुझे इसी दशा में रहने दो शीला।"
"संसार गया भट्टी में! मैं संसार का सुख भोगना चाहती हूँ। यदि यौवन पाकर भी उसे व्यर्थ गँवा दिया तो उससे क्या लाभ?"
"यदि मैं स्वयं संसार का सुख लूटने लगूँगा तो फिर संसार का हित-साधन कैसे कर सकूँगा। यह तो सोचो।"
"आखिर तुम संसार के पीछे इतने पागल क्यों होते हो। हमने संसार का हित करने का ठेका नहीं लिया है।"
इस प्रकार शीला ने बहुत कहा पर प्रोफेसर ने शीला की बात नहीं मानी। उसने कहा "मैं यह पदार्थ केवल उस समय खाऊँगा जब मैं समझ लूगा कि, मेरा अभीष्ट पूरा हो गया और अब मुझे संसार का सुख लूटने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना है।"
"ऐसा दिन कभी न आयेगा।"
"न आवे! मुझे उसकी चिन्ता भी नहीं है।"
"तो तुम अपने आविष्कार से न रुपया ही कमाते हो, न स्वयं ही उसका उपयोग करते हो, तब तुम्हारे इस परिश्रम से तुम्हें क्या लाभ हुआ?"
"मैंने अपने लाभ की बात तो कभी सोची भी नहीं।"
इस प्रश्न को लेकर शीला ने इतना झगड़ा मचाया कि, पति से रुष्ट होकर और कभी न आने की बात कहकर वह मायके चली गयी।
प्रोफेसर महोदय अकेले रह गये।
अन्त को एक दिन लोगों ने प्रोफेसर को अपने घर से लापता पाया। उसके कुछ मित्रों ने उसके घर में प्रवेश करके देखा कि, प्रयोगशाला की सब वस्तुएँ टूटी-फूटी पड़ी हैं। मेज पर एक कार्ड रक्खा हुआ