पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/५८

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कथा

( १ )

प्रातःकाल के छः बज रहे थे। इसी समय एक प्रौढ़ व्यक्ति जो शरीर का हृष्ट पुष्ट तथा स्वस्थ था गंगा-स्नान के लिए जा रहा था । इस व्यक्ति के हाथ में पीतल का एक छोटा कमण्डलु था, शरीर पर केवल एक रामनामी, बगल में धोती-अंगौछा, नंगे पैर, नंगे सिर !

गङ्गा-तट पर पहुँचकर उसने एक गंगापुत्र के तख्त पर आसन जमाया। गंगापुत्र उसे देखकर बोला—"सदा जय रहे, भागीरथी चोला प्रसन्न रक्खे । ठंडाई बनेगी। दादा ?"

"हाँ बनेगी क्यों नहीं।"

गंगापुत्र ने पुकारा-"अरे मोहना, ओ मोहना।" एक ओर से आवाज आई 'आये।'

"साले का तलुवा नहीं लगता। इधर-उधर घूमा करता है।"

"बच्चा है ! अभी उसकी खेलने खाने की उमर ही है।

"तो दद्द, यहाँ कौन खेत जोतना पड़ता है। खाली तखत पर बैठे रहने का काम है !"

इसी समय मोहन आ गया। १२, १३ बरस की वयस । आते ही पूछा-"का है चाचा ?"

"हैं तुम्हारा सिर ! ससुरा पूछता है, का है। चलो इधर आकर

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