सिल धोओ। लोटा भर लाओ।"
"मसाला है कि मैंगावे?" दादा ने पूछा।
"अाज भर को तो है कल देखा जायगा।"
गंगापुत्र ने झटपट एक थैली से ठंडाई का मसाला तथा भांग निकाली और पीसने का कार्य आरम्भ कर दिया।
"शाम को यहाँ कथा होती है?" दादा ने प्रश्न किया।
"हाँ दद्दू।"
"रामायण की
"हाँ दद्दू।"
"अच्छी कहते है।"
"हाँ अच्छी कहते हैं। हमें तो अच्छी लगती है दूसरे की हम जानते नहीं।"
"भीड़-भाड़ होती है?"
"हाँ! बहुत स्त्री-पुरुष आते हैं।"
"आज हमारी भी इच्छा है कि हम भी सुनें।"
"जरूर सुनो दद्दू! सुनने लायक है।"
"आठ बजे से होती है?"
"हाँ! आठ ही समझो। आठ बजे लग्गा लग जाता है।"
"खतम कब होती है?"
"दस बजे! दो घंटे होती है डट के।"
"आज जरूर आवेंगे।"
"तो ठंडाई भी यहीं आकर छानना। हम बना रक्खेंगे।"
"अच्छी बात है---तब तो सात बजे आ जायेंगे।"
दद्दू ने झट टेंट से एक रुपया निकाल कर गंगापुत्र के सामने फेंका और कहा---"तो सामान मँगा लेना।"
"कौन जल्दी थी---शाम को ले लेते।"
"वह सब ठीक है।"
ठंडाई तैयार होने पर गंगापुत्र ने पहले दद को पिलाई तत्पश्चात्