पृष्ठ:रघुवंश.djvu/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५९
चौथा सर्ग।

सेना को तो उसने नीचे ही छोड़ा,केवल अश्वारोही सेना लेकर उसने वहाँ से प्रस्थान किया। जिस रास्ते से उसे जाना था उसमें गेरू आदि धातुओं की बड़ी अधिकता थी। इसी कारण उसके घोड़ों की टापों से उड़ो हुई उन धातुओं की धूल से हिमालय के शिखर व्याप्त हो गये। उस समय उस धूल के उड़ने से ऐसा मालूम होने लगा जैसे पहले की अपेक्षा उन शिखरों की उँचाई बढ़ सी रही हो। राजा रघु की सेना का कोलाहल शब्द हिमालय की गुफाओं तक के भीतर पहुँच गया। उसे सुन कर वहाँ सोये हुए सिंह जाग पड़े और अपनी गर्दने मोड़ मोड़ कर पीछे की तरफ़ देखने लगे। रघु के घोड़ों को देख कर उन्होंने यह समझा कि वे हम लोगों से विशेष बलवान् नहीं; हमारी ही बराबरी के हैं। अतएव उनसे डरने का कोई कारण नहीं । उनके मन में उत्पन्न हुए ये विचार उनकी बाहरी चेष्टायों से साफ साफ झलकने लगे।

भोजपत्रों में लग कर खर-खर शब्द करने वाली,बाँसों के छेदों में घुस कर कर्ण-मधुर-ध्वनि उत्पन्न करने वाली,और गङ्गा के प्रवाह को छू कर आने के कारण शीतलता साथ लाने वाली वायु ने, मार्ग में,राजा रघु की खूब ही सेवा की। पर्वत के ऊपर चलने वाली उस शीतल,मन्द,सुगन्धित पवन ने रघु के मार्ग-श्रम का बहुत कुछ परिहार कर दिया। हिमालय पर सुरपुन्नाग,अर्थात् देव- केसर,के वृक्षों की बड़ी अधिकता है। उन्हीं के नीचे पत्थरों की शिलाओं पर कस्तूरी मृग बैठा करते हैं। इससे वे शिलाये कस्तूरी की सुगन्धि से सुगन्धित रहती हैं। उन्हीं शिलाओं पर रघु की सेना ने विश्राम करके अपनी थकावट दूर की । वहाँ पर रघु के हाथी देवदारु के पेड़ों से बाँध दिये गये । उस समय हाथियों की गर्दनों पर पड़ी हुई चमकीली ज़जीरों पर,आस पास उगी हुई जड़ी-बूटियाँ प्रतिबिम्बित होने लगी। इससे वे जजीरें देदीप्यमान हो उठी-उनसे प्रकाश का पुञ्ज निकलने लगा । इस कारण उन ओषधियों ने उस अपूर्व सेनानायक रघु के लिए बिना तेल की मशालों का काम दिया।

कुछ समय तक विश्राम करने के अनन्तर,रघु ने उस स्थान को भी छोड़ कर आगे का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर पर्वत-वासी किरात लोग वह जगह देखने आये जहाँ पर,कुछ देर पहले, सेना के डेरे लगे थे ।