पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१२१

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रघुवंश ।

राजा रघु से,उस चतुर ब्रह्मचारी ने अपना गुरु-दक्षिणा-सम्बन्धी प्रयोजन, इस प्रकार, साफ़ साफ़ शब्दों में, कहना प्रारम्भ किया। उसने कहा:-

"जब मेरा विद्याध्ययन हो चुका-जो कुछ मुझे पढ़ना था सब मैं पढ़ चुका-तब मैंने आचार्य वरतन्तु से प्रार्थना की कि आप कृपा करके गुरु-दक्षिणा के रूप में मेरी कुछ सेवा स्वीकार करें। परन्तु महर्षि के आश्रम में रह कर मैंने बड़े ही भक्ति-भाव से उसकी सेवा की थी। इससे वे मुझ पर पहले ही से बहुत प्रसन्न थे । अतएव,बिदा होते समय,मेरी प्रार्थना के उत्तर में उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि तेरी अकृत्रिम भक्ति ही से मैं सन्तुष्ट हूँ; मुझे गुरु-दक्षिणा न चाहिए । परन्तु मैंने हठ की । गुरु-दक्षिणा स्वीकार करने के लिए मेरे बार बार प्रार्थना करने पर प्राचार्य को क्रोध हो आया। इस कारण, मेरी दरिद्रता का कुछ भी विचार न करके, उन्होंने यह आज्ञा दी कि मैंने जो तुझे चौदह विद्यायें सिखाई हैं उनमें से एक एक विद्या के बदले एक एक करोड़ रुपया ला दे । यही चौदह करोड़ रुपया माँगने के लिए मैं आप के पास आया था। परन्तु, मेरा सत्कार करने के समय आपने मिट्टी के जिन पात्रों का उपयोग किया उन्हें देख कर ही मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि इस समय आप के पास प्रभुता का सूचक "प्रभु" शब्द मात्र शेष रह गया है। सम्पत्ति के नाम से और कुछ भी आप के पास नहीं। फिर,महर्षि वरतन्तु से प्राप्त की गई चौदह विद्याओं का बदला भी मुझे थोड़ा नहीं देना ! अतएव इतनी बड़ी रकम आप से माँगने के लिए मेरा मन गवाही नहीं देता। मैं, इस विषय में, आपसे आग्रह नहीं करना चाहता ‌।"

जिसके शरीर की कान्ति चन्द्रमा की कान्ति के समान आनन्ददायक थी, जिसकी इन्द्रियों का व्यापार पापाचरण से पराङ मुख था,जिसने कभी कोई पापकर्म नहीं किया था--ऐसे सार्वभौम राजा रघु ने, वेदार्थ जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ, कौत्स, ऋषि की पूर्वोक्त विज्ञप्ति सुन कर, यह उत्तर दिया:--

"आपका कहना ठीक है; परन्तु मैं आपको विफल-मनोरथ होकर लौट नहीं जाने दे सकता । कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ! सारे शास्त्रों का जानने वाला कौत्स ऋषि, अपने गुरु को दक्षिणा देने के लिए, याचक