पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१२२

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पाँचवाँ सर्ग।


बन कर आया; परन्तु रघु उसका मनोरथ सिद्ध न कर सका। इससे लाचार होकर उसे अन्य दाता के पास जाना पड़ा। इस तरह के लोकापवाद से मैं बहुत डरता हूँ। मैं, अपने ऊपर, ऐसे अपवाद के लगाये जाने का मौका नहीं देना चाहता। इस कारण, आप मेरी पवित्र और सुन्दर अग्निहोत्र-शाला में --जहाँ आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण, ये तीनों अग्नि निवास करते हैं- दो तीन दिन, मूत्ति मान चौथे अग्नि की तरह, ठहरने की कृपा करें। मान्यवर, तब तक मैं आपका मनोरथ सिद्ध करने के लिए, यथाशक्ति, उपाय करना चाहता हूँ।"

यह सुन कर वह ब्राह्मण श्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा:- "बहुत अच्छा। महाराज, आप सत्यप्रतिज्ञ हैं। आपकी आज्ञा मुझे सर्वथा मान्य है।" यह कह कर वह ऋषि राजा रघु की यज्ञ-शाला में जा ठहरा।

इधर राजा रघु ने सोचा कि पृथ्वी-मण्डल में जितना द्रव्य था वह तो मैं, दिग्विजय के समय, प्रायः सभी ले चुका। थोड़ा बहुत जो रह गया है उसे भी ले लेना उचित नहीं। अतएव, कौत्स के निमित्त द्रव्य प्राप्त करने के लिए कुवेर पर चढ़ाई करनी चाहिए। इस प्रकार मन में सङ्कल्प करके उसने धनाधिप से ही चौदह करोड़ रुपया वसूल करने का निश्चय किया। कुवेर तक पहुँचना और उसे युद्ध में परास्त करना रघु के लिए कोई बड़ी बात न थी। महामुनि वशिष्ठ ने पवित्र-मन्त्रोच्चारण-पूर्वक रधु पर जो जल छिड़का था, उसके प्रभाव से राजा रघु का सामर्थ्य बहुत ही बढ़ गया था। बड़े बड़े पर्वतों के शिखरों पर, दुस्तर महासागर के भीतर, यहाँ तक कि आकाश तक में भी-वायु से सहायता पाये हुए मेघ की गति के समान-उसके रथ की गति थी। कोई जगह ऐसी न थी जहाँ उसका रथ न जा सकता हो।

राजा रघु ने कुवेर को एक साधारण माण्डलिक राजा समझ कर, अपने पराक्रम से उसे परास्त करने का निश्चय किया। अतएव उस महा- शुर-वीर और गम्भीर राजा ने, सायङ्काल, अपने रथ को अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित किया; और, प्रातःकाल, उठ कर प्रस्थान करने के इरादे से रात को उसी के भीतर शयन भी किया। परन्तु प्रभात होते ही उसके कोशागार के सन्तरी दौड़े हुए उसके पास आये। उन्होंने आकर

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