पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०
रघुवंश


निवेदन किया कि महाराज, एक बड़े ही आश्चर्य की बात हुई है। आपके ख़जाने में रात को आकाश से सोने की बेहद वृष्टि हुई है। यह समाचार पा कर राजा समझ गया कि देदीप्यमान सुवर्ण-राशि की यह वृष्टि धनाधिप कुवेर ही की कृपा का फल है। उसी ने यह सोना आसमान से बरसाया है। अतएव, अब उस पर चढ़ाई करने की ज़रूरत नहीं। इन्द्र के वज्राघात से कट कर ज़मीन पर गिरे हुए सुमेरु-पर्वत के शिखर के समान, आकाश से गिरा हुआ, सुवर्ण का वह सारा का सारा ढेर, उसने कौत्स को दे डाला। अब तमाशा देखिए। कौत्स तो इधर यह कहने लगा कि जितना द्रव्य मुझे गुरु दक्षिणा में देना है उतना ही चाहिए, उससे अधिक मैं लूँगा ही नहीं। उधर राजा यह आग्रह करने लगा कि नहीं, आपको अधिक लेना ही पड़ेगा। जितना सोना मैं देता हूँ उतना सभी आपको लेना होगा। यह दशा देख कर अयोध्या-वासी जन दोनों को धन्य-धन्य कहने लगे। मतलब से अधिक द्रव्य न लेने की इच्छा प्रकट करने वाले कौत्स की जितनी प्रशंसा उन्होंने की, उतनी ही प्रशंसा उन्होंने माँगे हुए धन की अपेक्षा अधिक देने का आग्रह करने वाले रघु की भी की।

इसके अनन्तर राजा रघु ने उस सुवर्ण-राशि को, कौत्स के गुरु वरतन्तु के पास भेजने के लिए, सैकड़ों ऊँटों और खच्चरों पर लदवाया। फिर, कौत्स के बिदा होते समय, अपने शरीर के ऊपरी भाग को झुका कर और विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर, वह उसके सामने खड़ा हुआ। उस समय राजा के अलौकिक औदार्य से अत्यन्त सन्तुष्ट हो कर कौत्स ने उसकी पीठ ठोंकी और इस प्रकार उससे कहा:-

"हे राजा! न्याय-पूर्वक सम्पदाओं का सम्पादन, वर्द्धन, पालन और फिर उनका सत्पात्रों को दान-यह चार प्रकार का राज-कर्तव्य है। इन चारों कर्तव्यों के पालन में सदा सर्वदा तत्पर रहने वाले राजा के सारे मनोरथ यदि पृथ्वी पूर्ण करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परन्तु, महाराज, आपकी महिमा इस से कहीं बढ़ कर है। वह अतयं है। उसे देख कर अवश्य ही आश्चर्य होता है। क्योंकि, आपने पृथ्वी ही को नहीं, आसमान को भी दुह कर अपना मनोरथ सफल कर लिया। अब मैं आपको क्या आशीर्वाद दूँ ? कोई चीज़ ऐसी नहीं जो आपको प्राप्त न