पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१२६

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पाँचवाँ सर्ग।

उसने गोता लगाया था उसी जगह, पानी के ऊपर, गज-मद के लोभी अनेक भौंरे उड़ रहे थे। इससे लोगों ने समझ लिया कि कोई न कोई वन-गज अवश्य ही इस जगह पानी के भीतर है। इतने में वह हाथी पानी के भीतर से निकल पड़ा। उस समय, मद के धुल जाने से, उसका स्वच्छ मस्तक बहुत ही सुहावना मालूम होने लगा। इस गज ने, नर्मदा में गोता मारने के पहले, अपने दोनों दाँतों से, नदी के तीरवर्ती ऋक्ष नामक पर्वत के तट तोड़ने का घंटों खेल किया था। अतएव, पर्वत की गेरू आदि धातुओं से उसके दाँत रङ्गीन हो गये थे। परन्तु, नर्मदा में नहाने के कारण, इस समय, उसके दाँतों पर लगी हुई वह धातु-रज बिलकुल ही धो गई थी। तथापि उसकी चित्र विचित्र नीली रेखायें अब तक दाँतों के ऊपर देख पड़ती थीं। यही नहीं, किन्तु, कोड़ा के समय, शिलाओं से टकराने के कारण, उसके दाँतों पर जो रगड़ लगी थी उससे दाँतों की धार कुछ मोटी पड़ गई थी-दाँतों का नुकीलापन जाता सा रहा था। इन्हीं चिह्नों से यह सूचित होता था कि इसने, कुछ समय पहले, पूर्वोक्त पर्वत की जड़ में ज़रूर दाँतों की टक्कर मारी होगी। यह हाथी जल के भीतर से ऊपर उठ कर अपनी सुंडों से बड़ी बड़ी लहरों को तोड़ने फोड़ने लगा। सूंड़ को कभी सिकोड़ कर और कभी दूर तक फैला कर उससे वह पानी को इस ज़ोर से जल्दी जल्दी मारने लगा कि आस पास का वह सारा प्रदेश उसके तुमुल नाद से व्याप्त होगया। इस प्रकार कुलाहल करता हुआ जिस समय वह तट की तरफ़ चला उस समय यह मालूम होने लगा जैसे वह अपने पैरों में पड़ी हुई जंजीर को तोड़ डालने की चेष्टा कर रहा हो । वह पर्वताकार हाथी, सिवार की ढेरी को अपनी छाती से खींचता हुआ, नदी से निकल कर तट की ओर बढ़ा, परन्तु उस की सूंड़ के आघातों से पीड़ित किया गया नदी का प्रवाह, उसके पहुंचने के पहले ही, तट तक पहुँच गया। बढ़ी हुई लहरों ने पहले तट पर टक्कर खाई। उनके पीछे कहीं उस हाथी के तट तक पहुँचने की नौबत आई । पानी में बड़ी देर तक डूबे रहने के कारण उसकी दोनों कनपटियों से बहने वाला मद कुछ देर के लिए शान्त हो गया था। परन्तु, जल के बाहर निकलने पर, ज्योंही उसने रघु की सेना के हाथियों को