पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१४७

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रघुवंश।


लक्ष्मी जिस तरह भाग्यहीन को छोड़ जाती है उसी तरह वह भी उस अभागी राजा को छोड़ कर आगे बढ़ गई।

तब इन्दुमती को द्वारपालिका सुनन्दा ने उरगपुर के देवतुल्य रूपवान् राजा के सामने खड़ा किया; और, उस चकोरनयनी से उस राजा की तरफ़ देखने के लिए प्रार्थना करके, वह उसका परिचय कराने लगी। वह बोली:-

"देख, यह पाण्ड्य नरेश है। इसके शरीर पर पीले पीले हरिचन्दन का कैसा अच्छा खार लगा हुआ है और इसके कन्धों से बड़े बड़े मोतियों का हार भी कैसी सुघरता से लटक रहा है। जिसके शिखरों पर बाल सूर्य्य की पीली पीली, लालिमा लिये हुए, धूप फैल रही है और जिसके ऊपर से स्वच्छ जल के झरने झर रहे हैं-ऐसे पर्वतपति की छवि इसे देख कर याद आ जाती है। इस समय यह उसी के सदृश मालूम हो रहा है। राजकुमारी! तू अगस्त्यमुनि को जानती है? एक दफे विन्ध्याचल पर्वत, ऊँचा होकर, सूर्य और चन्द्रमा आदि की राह रोकने चला था। उसका निवारण अगस्त्य ही ने किया था। उन्हीं ने पहले तो समुद्र को पी लिया था; पर पीछे से उसे अपने पेट से बाहर निकाल दिया था। यही महामुनि अगस्त्य इस राजा के गुरु हैं। अश्वमेधयज्ञ समाप्त होने पर, अवभृथ नामक स्नान के उपरान्त, इस राजा का बदन सूखने भी नहीं पाता तभी, यही अगस्त्य बड़े प्रेम से इससे पूछते हैं-"यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया न?" इसके महत्व और प्रभुत्व का अन्दाज़ा तू इस एक ही बात से अच्छी तरह कर सकती है। ब्रह्मशिरा नामक अस्त्र प्राप्त करना बड़ा ही दुःसाध्य काम है। परन्तु, इस राजा ने देवाधिदेव शङ्कर को प्रसन्न करके उसे भी प्राप्त कर लिया है। इससे, पूर्वकाल में, जिस समय महाभिमानी लंकेश्वर रावण, इन्द्र को जीतने के लिए, स्वर्ग पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा, उस समय उसे यह डर हुआ कि ऐसा न हो जो मेरी गैरहाज़िरी में पाण्ड्यनरेश दण्डकारण्य का तहस नहस करके, वहाँ रहनेवाली मेरी राक्षसप्रजा का बिलकुल ही सर्वनाश कर डाले। अतएव पाण्ड्यनरेश से सन्धि करके-उसे अपना मित्र बना कर-तब रावण ने अमरावती पर चढ़ाई की। इसके पहले उसे अपनी राजधानी से हटने का साहस ही न