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रघुवंश।


हुए। आतिथ्य चाहे कुछ भी न होता, इन्दुमती दि उन्हें मिल जाती तो वे अवश्य सन्तुष्ट हो जाते। परन्तु वह तो उसके भाग्यही में न थो। मिलती कैसे ? ऊपर से तो इन लोगों ने प्रसन्नता प्रकट की, पर भीतरही भीतर ईर्षा की आग से जलते रहे। उस समय उनकी दशा उस तालाब के सदृश थी जिसका जल देखने में तो मोती के समान निर्मल हो, पर भीतर उसके मगर और घड़ियाल आदि बड़े ही भयानक जलचर भरे हों। राजा भोज के दिये हुए वस्त्र, शस्त्र और घोड़े आदि पहले तो उन्होंने ले लिये; पर, पीछे से, बिदा होते समय, वे उन्हीं चीज़ों को यह कह कर लौटाते गये कि इन्हें आप हमारी दी हुई भेंट समझिए। इन राजाओं ने आपस में सलाह कर के पहलेही यह निश्चय कर लिया था कि जिस तरह हो सके, इस इन्दुमतीरूपी आमिष को अज से ज़रूरही छोन लेना चाहिए। अतएव, इन्दुमती को साथ लेकर, विदर्भनगरी से अज के रवाना होने की वे ताक में थे। अपनी कार्य सिद्धि के लिए उन्होंने इसी मौके को सब से अच्छा समझा था। इससे राजा भोज से बिदा होकर वे उसकी राजधानी से चल तो दिये; पर अपने अपने घर न जाकर, बीचही में, अज का रास्ता रोक कर खड़े हो गये।

इधर छोटी बहन का विवाह निर्विघ्न समाप्त हो चुकने पर, राजा भोज ने अज को, अपने सामर्थ्य के अनुसार, दहेज में, बहुत कुछ धन-सम्पत्ति देकर उसे प्रसन्न किया। तदनन्तर उसे बिदा करके, कुछ दूर तक उसे पहुँचा आने के इरादे से, आप भी उसी के साथ रवाना हुआ। त्रिलोक विख्यात अज के साथ वह कई मजिल तक चला गया। रास्ते में तीन रातें उसने काटीं। इसके बाद-अमावस्या समाप्त होते ही चन्द्रमा जिस प्रकार सूर्य से अलग हो जाता है उसी प्रकार-वह भी अज का साथ छोड़ कर लौट पड़ा।

स्वयंवर में जितने राजा आये थे उनमें से प्रायः सभी की सम्पत्ति राजा रघु ने छीन ली थी-सब को परास्त करके उसने उनसे कर लिया था। इस बात ने पहले ही उन्हें रघु पर अत्यन्त क्रुद्ध कर दिया था। इकट्ठ होने पर, इन लोगों का वह क्रोध और भी बढ़ गया; और, रघु के पुत्र अज का स्त्री-रत्न पाना इन्हें असह्य हो उठा। अतएव, राजा बलि की दी हुई