पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१६

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कालिदास का समय।


ईसवी सन् के तीसरे शतक के पहले के नहीं। इसके साथ ही यह भी सूचित होता है कि वे ईसवी सन् के पाँचवें शतक के बाद के भी नहीं, क्योंकि सातवे शतक के कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित में कालिदास का नामोल्लेख किया है। दूसरे पुलकेशी की प्रशस्ति में रविकीर्ति ने भी भारवि के साथ कालिदास का नाम लिखा है। यह प्रशस्ति भी सातवें शतक की है। इस प्रशस्ति के समय भारवि को हुए कम से कम सौ वर्ष ज़रूर हो चुके होंगे। क्योंकि किसी प्रसिद्ध राजा की प्रशस्ति में उसी कवि का नाम लिखा जा सकता है जो स्वयं भी खूब प्रसिद्ध हो। और, प्राचीन समय में किसी की कीर्ति के प्रसार में सौ वर्ष से क्या कम लगते रहे होंगे। इधर बाण ने कालिदास का नामोल्लेख करने के सिवा सुबन्धु की वासवदत्ता, का भी उल्लेख किया है। अतएव सुबन्धु भी बाण के कोई सौ वर्ष पहले हुए होंगे। इस हिसाब से भारवि और सुबन्धु का समय ईसवी सन् के छठे शतक के पूर्वार्द्ध में सिद्ध होता है। भारवि और सुबन्धु की रचना में भङ्गश्लेष आदि के कारण क्लिष्टता आ गई है। पर यह दोष कालिदास की कविता में नहीं. है। अतएव वे भारवि और सुबन्धु के कोई सौ वर्ष ज़रूर पहले के हैं। अतएव वे गुप्त-नरेश द्वितीय चन्द्रगुप्त, उपनाम विक्रमादित्य, और तत्परवर्ती कुमारगुप्त के समय के जान पड़ते हैं। अर्थात् वे, अनुमान से, ३७५ से ४५० ईसवी के बीच में विद्यमान थे।

यह पाण्डेयजी की कल्पना-कोटियों का सारांश है। इसके बाद पाण्डेयजी ने और भी अनेक युक्तियों से अपने मत की पुष्टि की है। इन्दुमती के स्वयम्वर का उल्लेख कर के आप ने लिखा है कि कालिदास ने सब से पहले इन्दुमती को मगध-नरेश के ही पास खड़ा किया है, अवन्ती के अधीश्वर के पास नहीं। यदि वे अवन्ती (उज्जेन) के राजा के आश्रित होते तो वे इन्दुमती को पहले अपने आश्रयदाता के सामने ले जाते। पाण्डेयजी की राय में मगध-नरेश ही उस समय अवन्ती का भी स्वामी था। अतएव अवन्तिनाथ का जो वर्णन इन्दुमती के स्वयंवर में है उससे मगधेश्वर ही का बोध होता है। दोनों का स्वामी एकही था और वह द्वितीय चन्द्रगुप्त के सिवा और कोई नहीं हो सकता। ग्रन और mor------