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रघुवंश।


लगा जैसे जीती जागती सच्ची मछलियाँ पहली बरसात का गॅदला पानी पी रही हों। धीरे धीरे धूल ने और भी अधिक अपना प्रभाव जमाया। हाथ मारा न सूझने लगा । पहियों की आवाज़ न होती तो रथों के अस्तित्व का ज्ञान ही न हो सकता; गले में पड़े हुए घंटे न बजते तो हाथियों की स्थिति भी न जानी जा सकती; और, योद्धा लोग यदि चिल्ला चिल्ला कर अपने अपने स्वामियों का नाम न बताते तो शत्रु-मित्र की पहचान भी न हो सकती। शस्त्रों की चोट खा खाकर हज़ारों हाथी, घोड़े और सैनिक, लड़ाई के मैदान में, लोट गये। उनके घायल शरीरों से निकले हुए रुधिर की धारा बह चली। उसने, दृष्टि के अवरोधक उस रजोमय अन्धकार के लिए बाल-सूर्य का काम किया। सूर्योदय होने से अन्धकार जैसे दूर हो जाता है वैसे ही उस लाल लाल लोहू के प्रवाह ने, सब कहीं फैली हुई धूल को, कुछ कम कर दिया। उसने धूल की जड़ काट दी। वह नीचे होकर बहने लगा, धूल उसके ऊपर हो गई। ज़मीन से उसका लगाव छूट गया। इतने में हवा चलने से वह धूल ऊपर ही ऊपर उड़ने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ने लगा जैसे लपट निकल चुकने पर आग में अङ्गारों का केवल ढेर रह गया हो और उसके ऊपर पहले का उठा हुआ धुआँ मँडरा रहा हो।

गहरी चोट लगने से रथ पर सवार कितने ही सैनिक मूर्छित हो गये। यह देख, उनके सारथी उन्हें रथ पर डाल, युद्ध के मैदान से ले भागे। परन्तु, इतने में जो उन सैनिकों की मूर्छा छूटो और उन्हें होश आया तो उन्होंने इस तरह मैदान से भागने के कारण सारथियों को बेतरह धिक्कारा- उनकी बेहद निर्भर्त्सना की। अतएव उन्हें फिर रथ लौटाने पड़े। लौट कर उन सैनिकों ने अपने ऊपर प्रहार करने वालों को ढूँढ़ निकाला। यह काम सहजही हो गया, क्योंकि उन्होंने उनके रथों की ध्वजायें, अपने ऊपर प्रहार होते समय, पहलेही, अच्छी तरह देख ली थी। अतएव, उन्हें ढूँढ़ कर, क्रोध से भरे हुए वे उन पर टूट पड़े और सूद समेत बदला ले लिया। उन्होंने उनमें से एक को भी जीता न छोड़ा।

कोई कोई धनुषधारी धनुर्विद्या में बड़ेही निपुण थे। वे जब अपने शत्रुओं में से किसी को अपने बाण का निशाना बनाते थे तब बहुधा उनके