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सातवाँ सर्ग।


बाण उनके शत्रु बीचही में काट देते थे। परन्तु वे बाण इतने वेग से छूटते थे कि पिछला भाग कट जाने पर भी, लोहे का फल लगा हुआ उनका अगला भाग निशाने पर ही जाकर गिरता था। पिछला भाग तो कट कर गिर जाता था, पर अगला भाग निष्फल न जाता था-शत्रु को मार कर ही वह गिरता था।

जो सैनिक हाथियों पर सवार थे उनके चक्रों की धार छुरे की धार के समान तेज थी। उन चक्रों के आघात से महावतों के सिर कट कर कुछ दूर ऊपर आकाश में उड़ गये। वहाँ, सिरों के केश चील्हों के नखों में फँस जाने के कारण मुश्किल से छूटे। इससे, बड़ो देर बाद, वे ज़मीन पर धड़ाधड़ गिरे।

अब जरा घुड़सवारों के युद्ध की भी एक आध बात सुन लीजिए। एक ने यदि दूसरे पर प्रहार किया और वह मूच्छित होकर, घोड़े की गरदन पर सिर रख कर, रह गया-उसे अपने ऊपर वार करनेवाले पर हाथ उठाने का मौकाही न मिला-तो दुबारा प्रहार करने के लिए पहला तब तक ठहरा रहा जब तक दूसरे की मूर्छा न गई। मूर्च्छित अवस्था में शत्रु पर वार करना उसने अन्याय समझा। युद्ध में योद्धाओं ने धर्माधर्म का इतना खयाल रक्खा।

कवच धारण किये हुए योद्धाओं ने, मृत्यु को तुच्छ समझ कर, बड़ा ही भीषण युद्ध किया। अपने शरीर और प्राणों को उन्होंने कुछ भी न समझा। म्यान से तलवारें निकाल कर हाथियों के लम्बे लम्बे दाँतों पर, वे तड़ा तड़ मारने लगे। इस कारण उनसे चिनगारियाँ निकलने लगीं। इस पर हाथी बेतरह भयभीत हो उठे और सूंड़ों में भरे हुए पानी के कण बरसा कर किसी तरह उस आग को वे बुझा सके।

लड़ाई के मैदान ने, क्रम क्रम से, इतना भीषण और विकराल रूप धारण किया कि वह मृत्यु की पानभूमि, अर्थात् शराबखाने, की समता को पहुँच गया। पानभूमि में मद्य की नदियाँ बहती है; यहाँ रुधिर की नदियाँ बह निकली। वहाँ मद्य पीने के लिए काँच और मिट्टी के पात्र रहते हैं; यहाँ योद्धाओं के सिरों से गिरे हुए लोहे के टोपों ने पानपात्रों का काम दिया। वहाँ शराबियों की चाट के लिए फल रक्खे रहते हैं; यहाँ बाणों से काट गिराये गये हज़ारों सिर ही स्वादिष्ट फल हो गये।

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