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रघुवंश।


पसीने के बूंद उसके मस्तक पर छाये हुए थे। इस तरह इन्दुमती के सामने खड़े होकर उसने कहा:-

"वैदर्भी! मेरी प्रार्थना को स्वीकार करके ज़रा मेरे शत्रयों को तो एक नजर से देख। कैसे काठ के से पुतले हो रहे हैं! न इनका हाथ हिलता है, न पैर! इस समय, एक बच्चा भी, यदि चाहे तो, इनके हाथ से हथियार छीन सकता है। इसी बल, पौरुष और पराक्रम के भरोसे ये तुझे मेरे हाथ से छीन लेना चाहते थे। इन बेचारों को क्या खबर थी कि मेरे हाथ आ जाने पर त्रिकाल में भी तू इन्हें न मिल सकेगी।"

अज के मुख से ऐसी आनन्द-दायक बात सुन कर इन्दुमती का शत्रु-. सम्बन्धी सारा डर एकदम छुट गया-उसके मुख से भय और विषाद के चिह्न दूर हो गये। अतएव-साँस की भाफ़ पुछ जाने से, पहली ही सी निर्मलता पाये हुए आईने के समान-वह मुख बहुत ही मनोहर और कान्तिमान हो गया। अज की जीत से इन्दुमती को यद्यपि परमानन्द हुआ, तथापि, लज्जा के कारण, वह अपने ही मुँह से अज की प्रशंसा और अपनी प्रसन्नता न प्रकट कर सकी। यह काम उसने अपनी सखियों से कराया। वर्षा के प्रारम्भ में नये जल की बूंदों से छिड़की गई भूमि जिस तरह मयूरों की कूक से मेघों के समूह की प्रशंसा करती है, उसी तरह पति के पराक्रम से प्रसन्न हुई इन्दुमती ने भी सखियों के मुख से उसकी प्रशंसा की।

इस तरह सारे राजाओं के सिरों पर अपना बायाँ पैर रख कर उन्हें अच्छी तरह परास्त करके-और, सर्व-गुण-सम्पन्न इन्दुमती को साथ लेकर निर्दोष अज अपने घर गया। अपने रथों और घोड़ों की उड़ाई हुई धूल पड़ने से रूखे केशों वाली इन्दुमती को ही उसने रण की मूति मती विजय- लक्ष्मी समझा। उसने अपने मन में कहा-~~ इन्दुमती की प्राप्ति के मुकाबले में शत्रुओं पर प्राप्त हुई जीत कोई चीज़ नहीं। जीत की अपेक्षा इन्दुमती को ही मैं अधिक आदरणीय और अधिक महत्व की चीज़ समझता हूँ।

अज के विवाह और विजय की बात राजा रघु को पहले ही मालूम हो गई थी। अतएव बहुगुणशालिनी वधू को साथ लिये हुए जब वह अपने नगर में पहुँचा तब राजा रघु ने उसकी बड़ी बड़ाई की और उसका यथो-