पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१७

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भूमिका।


काल-सम्बन्ध में एक बड़ा ग्रन्थ लिख रहे हैं। उनके मत का सारांश नीचे दिया जाता है।

ईसा के पहले, पहले शतक में, विक्रम नाम का कोई ऐतिहासिक राजा नहीं हुआ। उसके नाम से जो संवत् चलता है वह पहले मालवगणस्थित्याब्द कहलाता था। मन्दसौर में ५२९ संवत् का जो उत्कीर्ण लेख मिला है वह इस संवत् का दर्शक सब से पुराना लेख है। उसमें लिखा है:-

मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये-इत्यादि

महाराज यशोधा के बहुत काल पीछे इस संवत् का नाम विक्रमसंवत् हुआ। गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमान पहले ग्रन्थकार हैं जिन्होंने विक्रम संवत् का उल्लेख किया है। देखिए:-

सप्तनवत्यधिकेन्वेशदशसु शतेष्वतीतेषु।
वर्षाणां विक्रमतो गणरत्नमहोदधिर्विहितः॥

इसका पता नहीं चलता कि कब और किसने मालव-संवत् का नाम विक्रम संवत् कर दिया।

कालिदास शुङ्ग-राजाओं से परिचित थे। वे गणित और फलित दोनों ज्योतिष जानते थे। मेघदूत में उन्होंने बृहत्कथा की कथाओं का उल्लेख किया है। हूण आदि सीमा-प्रान्त की जातियों का भी उन्हें ज्ञान था। उन्होंने अपने प्रन्थों में, पातञ्जल के अनुसार, कुछ व्याकरण-प्रयोग जान बूझ कर ऐसे किये हैं जो बहुत कम प्रयुक्त होते हैं। इन कारणों से कालिदास ईसवी सन् के पहले के नहीं माने जा सकते। पतञ्जलि ईसा के पूर्व दूसरे शतक में थे। उनके बाद पाली की पुत्री प्राकृत ने कितने ही रूप धारण किये। वह यहाँ तक प्रबल हो उठी कि कुछ समय तक उसने संस्कृत को प्रायः दबा सा दिया। अतएव जिस काल में प्राकृत का इतना प्राबल्य था उस काल में कालिदास ऐसे संस्कृत-कवि का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। फिर, पैशाची भाषा में लिखी हुई गुणाढ्य-कृत बृहत्कथा की कथाओं से कालिदास का परिचित होना भी यह कह रहा है कि वे गुणाढ्य के बाद हुए हैं, प्राकृत के प्राबल्य-काल में नहीं। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में ज्योतिष-सम्बन्धिनी जो बातें लिखी हैं उनसे वे आर्यभट्ट और वराहमिहिर के समकालीन ही से जान पड़ते हैं। इन बातों से सूचित होता है कि कालिदास